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________________ संतो ! सहज समाधि भली मैं जानता हूं अपने चित्त को, वह वर्षों खोजता रहा गुरु को, सिद्ध पुरुष को, समाधि के रहस्य को। पता नहीं कहां से कहां पदयात्राएं कीं। रेतीले टीलों में फैली धूप, छाया के बीच लहराती सागर की लहरियों में, मृग की तरह दौड़-दौड़ अपनी प्यास को बुझाने की कोशिश में यौवन लुटा दिया। कहां पानी ? कहां पानी पिलाने वाला? क्या प्यासा ही मरेगा बेचारा । झाड़ियों के बीच जंगलों में भटका, पहाड़ियों की चोटियों पर बनी कुटियों की खाक छानी। खाक ही खाक थी, चिनगारी कहीं उपलब्ध नहीं हुई। गुफाओं में खोजा, बरफ की दरारों में दिवाना बना फिरा कि कोई गुरु मिल जाए। शरद रात की शीतल समीर शरीर में सनसनाहट पैदा कर रही थी। बरफ से घिरी घाटी के मध्य मील के पत्थर की तरह मैं अकेला खड़ा था। आकाश में टिमटिमाते तारों की झिलमिलाती रोशनी के बीच चांद की शांत निर्मल चांदनी की चादर पूरी घाटी पर बिछी हुई थी। बाहर के विराट फैलाव की ओर आंखें जाती तब अपने अस्तित्व की लघिमा का पता चलता। ना तुच्छ, ना चीज, हवा का एक झौंका लगा कि पता ही नहीं मिलेगा कि कोई मनुज यहां से गुजरा था। चिन्तन मात्र से शरीर प्रकंपित हो उठा। पसीना रोम-रोम से चू पड़ा। सिर चकराने लगा। धरती और आकाश घूमने लगा। शरीर भी जैसे चाक पर चक्कर काट रहा हो। सब कुछ धूम रहा था लेकिन चैतन्य का एक केन्द्र अब भी स्थिर था। उसकी स्थिरता और अस्थिरता के विस्फोट से चैतन्य का एक-एक प्रदेश झंकृत हो गया। बाहर की घाटी की तरह, अन्दर भी विराट अस्तित्व हिलोरे ले रहा था। "अकथ कहानी अस्तित्व की मुख से कही न जाए" उक्ति चरितार्थ हो रही थी। आकाश की तरह विशाल, तारों की तरह चमकते प्राण के बिन्दु, चांद की तरह चैतन्य की उज्ज्वल रश्मियां फूटने लगीं । मानो हजारों-हजारों सूरज एक साथ रोशनी बिखेर रहे थे । आंखें चुधिया गईं। अपूर्व घटना थी। अश्रुत थी। अदृश्य थी। कल्पना के पंखों पर भी उतारी नहीं जा सकती। न सर्दी, न गर्मी, न भय, न मूर्छा, न काम, न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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