________________
प्रज्ञा की परिक्रमा क्रोध, न मोह, न लोभ, ना माया, न इच्छा, न बुभुक्षा, न मुमुक्षा केवल अस्तित्व की विराट शक्ति का लहराता दरिया जिसमें न अहंकार, न ममकार, न आधि न व्याधि और न उपाधि केवल कलौले भरता शांत स्वर मुखरित हो रहा था, चले आओ, बढ़ें आओ, लक्ष्य के प्रति समर्पण ही, सच्ची खोज और सच्चा सद्गुरु है। गुरु अस्तित्व का अनुभव है। गुरु विराट का अनुभव है। गुरु साकार का साक्षात् है। गुरु निराकार का अनुभव है। गुरु गुरु है। गुरु प्यास है। गुरु अभिप्सा ही है। गुरु अन्तर् की पुनरावृत्ति हैं। गुरु स्वप्न की अभिव्यक्ति है।
गुरु तो केवल बहाना है, चैतन्य के अस्तित्व की स्वीकृति और प्रगटीकरण विस्तार के लिए। व्यक्ति की अपनी दुर्बलता है कि स्वयं की स्वीकृति को भी दूसरों को सहमति से पहचानता है। किसी अनुभूति को अभिव्यक्ति देते समय तीन बार दाएं-बाएं झांकता है। स्वयं को स्वयं पर जब विश्वास नहीं तब निर्णय कैसे ले सकता है ? सत्य की अभिव्यक्ति और अनुभूति के लिए साधना से गुजरना होता है। साधना से गुजर कर सत्य का अनुभव किया जा सकता है। व्यक्ति साधना का पुरुषार्थ करना नहीं चाहता। गुरु के अनुभव से लाभान्वित होना चाहता है। कोई भी व्यक्ति स्वयं की साधना का अनुभव दूसरो को नहीं दे सकता। प्रत्येक व्यक्ति को साधना द्वारा उन अनुभवों का साक्षात् करना होता है, जिनका गुरुजनों ने अनुभव किया उसका अनुभव व्यक्ति स्वयं भी साधना द्वारा कर सकता है।
कुछ अनुभव ऐसे आकस्मिक होते हैं कि उनका विश्लेषण करना अत्यन्त दुरूह है। ये अनुभव कोई पूर्व नियोजित अथवा कल्पित नहीं होते। जो अनुभूति के तल पर उतरता है उससे इन्कार भी नहीं किया जा सकता।
पूर्णिमा की रात्रि थी। आकाश प्रशांत था। तारे दूर-दूर फैले टिमटिमा रहे थें । रोशनी की श्वेत धारा आकाशगंगा में परिणित हो रही थी। मन श्वास पर केन्द्रित था। श्वास-प्रश्वास की एकलयता से जागरूकता बढ़ रही थी। जागरूक वृत्ति में मन खोता जा रहा था। यह अजीब सा अनुभव था। फिर भी चित्त क्षण प्रतिक्षण परिवर्तन होने वाली पर्यायों (अवस्थाओं) का साक्षी भाव से निरीक्षण कर रहा था। न कोई स्मृति थी, न कोई कल्पना थी। न कोई विचार उभर रहा था। चित्त निर्विचारता के गहन बोध में उतर रहा था। एक नया अनुभव, एक नई दिशा, एक-एक परत खुल-खुल कर, अस्तित्व की अतल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org