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सन्तों ! सहज समाधि भूली ! गहराई में उतरे जा रही थी। अजीब था वह क्षण । शरीर की कोशिकाओं से प्रतिभासित होने वाला ज्ञान, प्रकाश, शब्द संकेत उसके लिए असमर्थ है। शब्दाभिव्यक्ति अनुभूति को सिमेटने में कितनी असफल लग रही थी। अनेक बार चिन्तन के बावजूद मानस को हार कर उस लड़खड़ाते अनुवाद को स्वीकृत करने के सिवाय कोई पथ सूझ नहीं रहा था।
शरीर के कण-कण में विचित्र स्फुरणा की एक सुखद प्रतीति में प्राण इतना आनन्द विहल हो रहा था। जिसकी शब्द सूचना और पहिचान करते कठिनाई हो रही थी। फिर भी चेतना अत्यन्त जागरूक थी। अकस्मात् शरीर में करेंट का झटका सा लगा। शरीर के आकार का सुन्दर दिव्य रूप ध्यानस्थ व पद्मासन आकाश में तैर रहा था। समाधि की यह व्यवस्था थी या सूक्ष्म शरीर की यात्रा (एष्ट्रल ट्रेवलिंग) अथवा स्वप्निल मानसिक चिन्तन, यह खोज का ही विषय हो सकता है। घंटों तक ध्यान की यह यात्रा चलती रही। अनुभव की अमिट गाथा चेतना के तल पर अंकित हो गई। वह आज भी स्मृति पटल पर उभर-उभर कर तैरने लगती है। सोचता हु आखिर यह सब क्या थी। कबीर की उलट वासियां सामने कौंध गई। सन्तो! आनन्द की वर्षा हो रही है। बूंद समानी समंद में' 'गंगे केरी सरकरां' । अनुभूति को गूंगे का गुडं कह कर अभिव्यक्ति की असमर्थता बता रहे हैं। नानक तेरा....तेरा....तेरा.....तेरा कहते विराट में एक लय हो गए। बुद्ध वृद्ध रोगी, मृतक को देख जाग गए यथार्थ के अनुभव के लिए गतिशील बन गए। आचार्य भिक्षु ज्वर से पीड़ित आसन पर रात्रि में विश्राम कर रहे थे। सत्य के स्वर, चिंतन और चैतन्य पर चोट कर रहे थे। आखिर सत्य विजयी हुआ, आचार्य भिक्षु ने अपने आप को सत्य के प्रति समर्पित कर दिया। जिसका परिणाम तेरापंथ का उद्भव हुआ। गुरु के सम्मुख एक झेन सन्यासी पहुंचा । बोधि के उपाय के लिए पुनः पुनः प्रार्थना कर रहा था। गुरु ने कहा-अभी नहीं, चले जाओ। एक हाथ की ताली की आवाज सुनोः तब मेरे पास आना; बोधि की शिक्षा तब दूंगा। शिष्य कितनी बार लौटा मिलने के लिए। एक दिन अचानक वह एक हाथ की ताली की आवाज को उपलब्ध हो गया। झेन गुरु इसको सतौरी कहते हैं क्या यह वैसी ही घटना थी।
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