________________
अस्तित्व की अन्तहीन परिक्रमा
आचार्य श्री तुलसी दक्षिण भारत की पदयात्रा पर थे। महाराष्ट्र की राजधानी बम्बई से थाना होते हुए पूना की ओर बढ़ रहे थे। थाना से प्रस्थान कर सड़क के किनारे बसे ग्राम में पहुंचे। गुजराती भाई की एक पुरानी कोठी थी। रात्रि का विश्राम स्थल यहीं था। संध्या का समय था। सामने खाड़ी का छितरा हुआ पानी था। मैं लकड़ी के पात्र को हाथ में थामे हुए सीढ़ियां उतर रहा था। लोहे के खम्भे के सहारे कटावदार पट्टियों से बनी सीढ़ियों को पार कर रहा था, कि अकस्मात् मेरी कुहनी का कोना लोहे के खम्भे से ऐसे टकराया मुझे मानो करेंट ने छ दिया हो। मस्तक चक्कर खाने लगा। शरीर पूरी तरह से शिथिल हो गया। मैं पीठ के बल सीढ़ियों में गिर गया। सामने से संत आ रहे थे। मुझे ऐसे गिरते देख तत्काल संभालने लगे। मुझे टक्कर का स्मरण अच्छी तरह था। पात्र हाथ से लुढ़क रहा था। मैं शान्त, शून्य किसी एक विशेष स्थिति में पहुंच रहा था, ऐसा मुझे अनुभव हो रहा था। कोई इसे ट्रांस कहता है, कोई सतौरी, कोई समाधि की झलक । कोई टक्कर से चक्कर और बेहोशी। कुछ मिनट का वह अनुभव आज भी स्मृति पटल पर सुरक्षित है। वह घटना भुलाए भी नहीं भूली जा रही है। सचमुच वे क्षण मेरी समाधि की खोज के प्रेरक बनें।
समाधि साधना का आदि बिन्दु भी है और अन्तिम छोर भी। समाधि भारतीय साधना पद्धति का विशिष्ट शब्द बन गया, जिसका लाक्षणिक अर्थ हो गया है ऐसा आनन्द, शक्ति और ज्ञानमयी अवस्था जिसमें व्यक्ति दीन और दुनिया को भुलकर अपने स्वरूप में लीन बना रहता है।
समाधि का सरल अर्थ है समाधान। जब व्यक्ति किसी समस्या का समाधान पा लेता है वह अपने आप में समाहित हो जोता है। समाधि को उपलब्ध हो जाता है। समस्याओं के समाधान का नाम समाधि है। इसका निर्णय कौन करे ? जो समाधान मिला क्या वह यथार्थ के धरातल पर उतरा है या कल्पना के रंगों से रंगा हुआ काल्पनिक भाव है ? समाधि की स्थिति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org