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क्रोध शमन के प्रयोग श्वास-प्रश्वास जीवन धारण के लिए आवश्यक है। वहां वह भाव और आवेगों को भी प्रभावित करता है। किसी भी शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक आवेग में श्वास–प्रश्वास विषम होने लगता है। श्वास-प्रश्वास की विषमता से शरीर, मन एवं भावना में परिवर्तन होने लगता है। श्वास-प्रश्वास और भाव परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। आवेश की कोई स्थिति में श्वास-प्रश्वास को शम और उपशम रखकर जागरूकता से प्रेक्षा का अभ्यास किया जाए तो आवेग की स्थिति आगे न बढ़कर उपशान्त होने लगती है।
दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा के अभ्यास में साधक शरीर को शिथिल कर आते-जाते हुए श्वास-प्रश्वास पर अपने चित्त को केन्द्रित कर प्रेक्षा करता है। प्रेक्षा के इस अभ्यास से श्वास-प्रश्वास दीर्घ एवं गहरा होने लगता है। श्वास-प्रश्वास के शान्त दीर्घ एवं गहरा होने से क्रोध आदि आवेगात्मक स्थिति उपशान्त होने लगती है। प्रतिदिन नियमित दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा के अभ्यास से क्रोध आदि आवेगात्मक स्थिति का नियम किया जा सकता। क्रोध उपशान्त करने का इच्छुक व्यक्ति, दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा का प्रतिदिन १५ मिनट के अभ्यास से अपने क्रोध की स्थूल वृत्तियों पर नियंत्रण पा सकता है। दीर्घ-श्वास-क्रोध शमन के अतिरिक्त रक्त शोधन भी करता है। जिससे शारीरिक दोष भी निर्मल बनने लगते हैं। दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा की प्रक्रिया
दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा के अभ्यास के लिए शरीर को शिथिल कर किसी सुखपूर्वक आसन पर स्थिर रहें। अपने चित्त को नाभि पर केन्द्रित कर श्वास लेते समय पेट के फूलने और प्रश्वास के समय सिकुड़ने की क्रिया को सजगता से अनुभव करें। एकाग्रता के साथ अपने चित्त को नथुनों पर केन्द्रित कर आते-जाते हुए श्वास-प्रश्वास की प्रेक्षा करें। प्रेक्षा के समय चित्त श्वासप्रश्वास के साथ निरन्तर जुड़ा रहता है। श्वास-प्रेक्षा से श्वास-प्रश्वास के प्रति जागरूक बनते हैं। जागरूकता ध्यान की गहराई में जाने की दृष्टि है। उससे क्रोध एवं भावनात्मक आवेग उपशान्त होने लगते हैं। क्रोध को शान्त करने दीर्घ श्वास-प्रेक्षा की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण किमिया है।
श्वास-प्रश्वास के इस क्रम को प्रातः ६ बजे पूर्व कभी भी किया जा सकता है। श्वास-प्रश्वास प्रेक्षा के समय मेरुदण्ड को सीधा रखें।
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