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________________ आदि स्वर प्रज्ञा की परिक्रमा करते हुए एक विचित्र स्थिति उद्भूत हुईं। प्रज्ञा की कोई परिक्रमा की जा सकती है ? प्रज्ञा क्या कोई अनुभूति है ? प्रवृत्ति है? प्रज्ञा के अस्तित्व को स्पर्श करने का प्रयत्न किया गया कि स्मृत्तियां विलीन होने लगीं। कल्पनाएं काल कवलित हो गईं। अनुभूतियां मिटने लगीं। बोध बिना किसी संकेत के स्पष्ट होने लगा। प्रज्ञा पुरुष महावीर ने इसे "अरूविसत्ता" कह कर संबोधित किया है। उपनिषद् का ऋषि भी नेति नेति कहकर उस परम सत्य की ओर इंगित करता है। वस्तुतः जब अनुभूति विलीन होने लगती है तब प्रज्ञा की यात्रा प्रारंभ होती है। प्रज्ञा कोई अनुभव का विश्लेषण नहीं है। प्रज्ञा स्मृति का कोई अंकन नहीं है। प्रज्ञा कल्पना का कोई कवच नहीं है। प्रज्ञा को इन सब मानकों से मापने की कोशिश स्वयं की अज्ञता का ही द्योतक है। प्रज्ञा कोई परम्परा का परिचय नहीं है। प्रज्ञा किसी विषय का अनुबन्ध नहीं है। प्रज्ञा कोई दर्शन नहीं है। प्रज्ञा सत्य का साक्षात है। उसको जिया जा सकता है किन्तु कहा नहीं जा सकता । कहने का यत् किंचित प्रयत्न किया जाता है वह मात्र प्रज्ञा के प्रकाश की ओर संकेत ही है। इशारा कर भी अन्त में यह अनुभव होता है। प्रज्ञा के संबंध में मौन ही सशक्त संकेत है फिर भी मनुष्य का अपना स्वभाव है कि वह सत्य के संबन्ध में वक्तव्य दिए बिना नहीं रहता है। उसे दूसरों तक पहुंचाने का सफलअसफल प्रयास करता है, किन्तु प्रज्ञा शील व्यक्तित्व इसे स्पष्ट अनुभव करता है। प्रज्ञा को पहचानने के लिए हमारे पास जो भी साधन हैं वे बहुत पीछे रह जाते हैं चाहे फिर वे सत्य का साक्षात्, अनुभव की स्पष्टता, आत्मानुभव आदि शब्दों के द्वारा ही क्यों न अभिव्यक्त किए गए हों। मनुष्य जाति के पास इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं कि वह अपनी अनुभूतियों को संकेतों द्वारा स्पष्ट करें। अनुभव में सदैव द्वैत रहता है लेकिन प्रज्ञा में कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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