SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ V द्वैत नहीं होता। वहां अस्तित्व के साथ एकत्व हो जाता है अर्थात् अद्वैत फलित हो जाता है। "प्रज्ञा की परिक्रमा " आचार्य श्री महाप्रज्ञ के उपपात का परिणाम है। महाप्रज्ञ के श्वास-प्रश्वास के साथ प्रज्ञा का निर्भर निरन्तर बहता रहता है। उनकी सन्निधि अनायास प्रज्ञा में उतार देती है। उनके प्राणों से गूंजा हुआ एक-एक बोल हृदय को आन्दोलित कर देता है । युवाचार्य श्री को महाप्रज्ञ की उपाधि से अलंकृत करते हुए युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने आशीर्वचन में कहा "महाप्रज्ञ ! संघ को प्रज्ञा का अनुदान करो। जन-जन में प्रज्ञा के बीज बिखेरो" युवाचार्य श्री ने अपनी प्रज्ञा को प्रेक्षा के द्वारा जन-जन के हृदय में स्थापित किया है और कर रहे हैं, सौभाग्य से प्रेक्षा ध्यान शिविरों में, उनके निर्देशन में साधना की विभिन्न पद्धतियों से गुजरने एवं प्रशिक्षण देने का अवसर प्राप्त होता रहता हैं। सचमुच महाप्रज्ञ के प्राणवान आभामंडल का ही परिणाम है कि स्वल्प समय में प्रेक्षा जन जीवन को परिष्कृत करके अपनी महत्ता को प्रस्तुत कर रही है। प्रेक्षा का पुरुषार्थ करके प्रज्ञा के अस्तित्व का स्पर्श हुआ हैं उसमें से जो सार निकला उसे प्रज्ञा और प्रेक्षा दो विभागों में ग्रंथित किया गया है। प्रज्ञा और प्रेक्षा के ये निबन्ध समय - समय पर ऑल इण्डिया रेडियो एवं देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं नवभारत टाइम्स, दैनिक जागरण, तीर्थंकर, प्रेक्षा-ध्यान, अणुव्रत, जैन भारती, जलते दीप, युवादृष्टि आदि में प्रसारित एवं प्रकाशित हुए हैं। श्रोताओं एवं पाठकों ने इन्हें पसंद किया। इस संकलन में मुनि धर्मेन्द्र कुमार जी का शारीरिक, मानसिक योगदान सदैव रहा है। उनके श्रम और सेवा को विस्मृत नहीं किया जा सकता। समणी स्थित प्रज्ञा ने पुस्तक की पांडुलिपि को व्यवस्थित करने एवं प्रूफ देखने में अपना समय लगाया उनके प्रति मंगल भाव ही कर सकता हूँ । आचार्य श्री तुलसी युग प्रवर्त्तक महर्षि हैं उन्होंने अपने जीवन को नव निर्माण के लिए समर्पित किया है। उनके तेजस्वी अनुष्ठान की अर्ध शताब्दी पूर्ण होने जा रही है। जन-जन उनके गौरव पूर्णं पचास वर्षों की गरिमा को अमृत - महोत्वस के रूप में अभिवंदित कर रहा है। यह कृति "वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो" से प्रेरित है। आचार्य प्रवर के अमृत महोत्सव में मंगलमय बेला में दो मांगलिक पुष्प प्रज्ञा और प्रेक्षा से ग्रंथित नव्य पुष्पहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy