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भय मुक्त कैसे हों की गई, किन्तु वे न भयभीत हुए और न उन्होंने कष्ट का अनुभव किया। ऐसी परिस्थितियां भी देखी जाती हैं कि कार्य सामान्य रूप से कष्टप्रद होता है, वही कार्य सुखद अनुभव होने से व्यक्ति करने को उत्सुक होता है। अज्ञात से भय
बहुत-सी स्थितियां तब तक भय उत्पन्न करती हैं, जब तक वे अज्ञात होती हैं। अज्ञात स्थिति ही भय का कारण बनती है। ज्ञात होते ही उससे भय निकल जाता है। दुःख मृत्यु और विनाश की उपलब्धि अथवा आकाश से चित्त भयग्रस्त होता है। दुःख-सुख मन की स्थिति पर आधारित है। दुःख, सुख बन जाता है। सुख दुःख में परिवर्तित हो जाता है। मृत्यु और विनाश भय की उत्पत्ति के कारण बनते हैं। मृत्यु का भय भी अज्ञात से जुड़ा है, वह प्राप्त स्थिति को छोड़कर कहां जाएगा? वहां की स्थिति क्या और कैसी होगी? इसके अतिरिक्त मृत्यु की घटना से प्राप्त जगत् और आशाएं समाप्त हो जाती हैं, जिससे उसके प्राप्त योग में अन्तराय आ जाती है। मोहनीय से भय
जैन परम्परा के अनुसार भय मोहनीय कर्म प्रकृति के उदय से प्रगट होता है। मोहनीय कर्म व्यक्ति को मूढ़ बनाता है। उसके अभिभव के लिए आचार्य भद्रबाहू ने कायोत्सर्ग का विधान किया है। 'मोहपगड़ी भयं अभिभवितु जो कुणइ काउस्सग'
-कायोत्सर्ग शतक। कायोत्सर्ग से शरीर एवं मन के तनाव का विसर्जन होता है। भय-चिकित्सा के लिए कायोत्सर्ग का विधान किया गया है। यह उचित है, क्योंकि तनावग्रस्त व्यक्ति ही भय से भयभीत होता है। स्थानांग में एक प्रसंग पर बताया गया है, भयभीत व्यक्ति में ही यक्ष आदि प्रविष्ट हो जाते हैं। वर्तमान में भूत, यक्ष ही की घटित घटनाओं में जब तलाश की जाती है, तब पाते हैं कि वह व्यक्ति तनावग्रस्त और भयभीत रहता था। भय से व्यक्ति की चेतना सिकुड़ती है, वहीं प्रेम, करुणा और मैत्री से चैतन्य फैलता है। जहां सिकुड़न होती है, रिक्त स्थान में यक्षादि का प्रवेश सहज हो जाता है। भयभीत व्यक्ति को ही मनुष्य तिर्यंच आदि भी पीड़ित करते हैं। प्राचीन उक्ति यथार्थ है कि भय से भय उत्पन्न होता है।
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