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प्रज्ञा की परिक्रमा खोजने और विश्लेषण करने का प्रयत्न किया है। भय काम के सदृश ही प्रवृत्ति है। भय के प्रतिफलन का कारण वातावरण एवं तात्कालीन स्थितियां हैं। व्यक्ति आदि-युग में यौगलिक रूप में जीवन व्यतीत करता था। आवश्यकताएं सीमित थीं उसकी पूर्ति सहज साधनों-वृक्षों से पूर्ण हो जाती थीं। जनसंख्या की अधिकता वस्तुओं की कमी से छीना-झपटी होने लगी। एक दूसरे के अधिकार का हनन होने लगा। उस समय जो कुछ होता था, वह निश्चित ज्ञात था। आकस्मिक दुर्घटना घटित नहीं होती थी। कुछ आकस्मिक घटनाओं ने उसके मानस को आन्दोलित किया। एक दूसरे की हत्या और वस्तुओं की छीनाझपटी से भय का संचार हुआ। वे संगठित और शस्त्र से सन्नद्ध रहने लगे। संगठन और शस्त्र ने संघर्ष का रूप लिया। संगठन
और शस्त्र के नये-नये रूप सामने आने लगे। भय का साम्राज्य चहुं दिशाओं में व्याप्त होने लगा। अहर्निश भय से भयभीत व्यक्ति प्रतिक्षण संत्रस्त रहता। इस स्थिति से मुक्ति-प्रदाता जो तत्व है, उसे महापुरुषों ने धर्म की संज्ञा से अभिहित किया।
भगवान् महावीर ने कहा, 'सव्वतो पमत्तस्स भयं, अपमत्तस्स नत्थि भयं' प्रमादी को भय है। प्रमादी का तात्पर्य है-जो मन और इन्द्रियों के विषय में अनुरक्त रह कर स्वरूप को विस्मृत कर देता है। अपने स्वरूप का विस्मरण ही प्रमाद को उत्पन्न करता है। प्रमाद का तात्पर्य है-अकरणीय कार्य करना।
अकरणीय कार्य की ओर प्रवृत्ति से ही भय उत्पन्न होता है वह सोचता है कि मैं जो कुछ कर रहा हूं, वह करणीय नहीं है। किसी ने देख तो नहीं लिया है, इससे वह भयभीत ही चिंतित होता है। चिंता ही पुन:-पुनः भय को उत्पन्न करती है। मान्यताएं और भय
भय को उत्पन्न करने में भूत प्रेतों आदि की मान्यताओं का योग है। समाज में प्रचलित मान्यताओं द्वारा व्यक्ति के चित्त में धारणाओं का निर्माण होता है। धारणाओं से उसके चित्त पर संस्कार पड़ते हैं। यह संस्कार ही उसमें भय की स्थिति को बताते है। मनोवैज्ञानिकों ने भय के संबंध में विविध प्रयोग किए। कुछ पिल्लों को ऐसी स्थिति में पाला गया कि उनको किसी प्रकार का शारीरिक कष्ट एवं भय उत्पन्न न हो। बड़े होने के पश्चात् उनके शरीर में सूइयां चुभोई गईं। दियासलाई को जलाकर जलाने की कोशिश
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