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२१ मुक्ति के सूत्र
सब जीव जीना चाहते हैं। मरना कोई नहीं चाहता, जिजीविषा जीव की मौलिक वृत्ति है। जीने के लिए वह हर तरह, हर क्षण कोशिश करता है, संघर्ष करता है। मृत्यु उसे पसन्द नहीं है। यह शाश्वत स्वर है। आप्त पुरुषों की वाणी में इसका उल्लेख हुआ-'सव्वे जीवावि इच्छन्ति जीवियं न मरिजीवं' सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं। यह जिजीविषा ही जीव को जीवन्त और क्रियाशील बनाए हुए हैं।
जिजीविषा की तरह अन्य मूल वृत्तियां आहार, भय, काम और संग्रह हैं। जैन परम्परा में इनको संज्ञाओं से अभिहित किया गया हैं। उसका कहना है कि प्रत्येक प्राणी में ये चार संज्ञाएं अवश्यंभावी होती हैं। उनके लिए ही प्राणी प्रवृत्ति करता है। ___ आहार शरीर धारण की आवश्यकता है। उसके बिना शरीर लम्बे समय तक टिक नहीं सकता। आहार के बिना कुछ महीने तक रहा भी जा सकता है, पानी के बिना कुछ दिन तक रहा जा सकता है लेकिन श्वास के बिना कुछ क्षण रहना भी मुश्किल है। श्वास, जल या भोजन की बुभुक्षा को शान्त करने के लिए यह जीव पुरुषार्थ करता रहता है।
जिजीविषा के लिए आहार, स्थान आदि के लिए प्रयत्नशील चित्त उसे उपलब्ध होने पर राग एवं अनुपलब्ध होने पर द्वेष में चला जाता है। राग एवं द्वेष ही बंधन का मूल है। राग-द्वेष के विलय का पुरुषार्थ ही साधना और सिद्धि है। राग-द्वेष के विलय के पुरुषार्थ को एक-एक शब्द से अभिव्यक्ति दें तो वह प्रेक्षा हो सकता हैं। प्रेक्षा-अर्थात् केवल दर्शन । गहराई से देखना, अनुभव करना, राग-द्वेष रहित वर्तमान क्षण का साक्षात् करना। प्रेक्षा राग-द्वेष से मुक्त रहने की प्रक्रिया है। प्रेक्षा चैतन्य का शुद्ध उपयोग है। शुद्ध उपयोग में प्रियता, अप्रियता नहीं रहती, केवल उपयोग अस्तित्व का अनुभव रहता है। यह अन्तरंग स्थिति है। अन्तरंग स्थिति के निर्माण में बाह्य वातावरण भी सहयोगी बनता है। उसके बिना अन्तरंग स्थिति भी दीर्घकाल
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