SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग सीधा रखा जाता है। ठुड्डी हंसली से चार अंगुल ऊपर रहती है। ब्रह्म मुद्रा में हाथ नाभि के पास गोद पर रहते हैं। बायां हाथ नीचे, दायां हाथ ऊपर रख कर अंगूठे आगे से एक दूसरे से स्पर्श करेंगे। यही ब्रह्म मुद्रा है। शरीर की स्थिर स्थिति के पश्चात् स्वर यंत्र हंसली के पास जो कोमल गड्डा-सा दिखाई देता है वहां पर अपने चित्त को केन्द्रित करना पड़ता है। श्वास-प्रश्वास की इसी स्थान से नियंत्रित किया जाता है। श्वास-प्रश्वास नाक के नथुनों से ही आएगा और जाएगा, किन्तु श्वास का खिंचाव स्वर यंत्र से होता रहेगा जिससे श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया दीर्घ होने लगती है। इसका सम्यक् अभ्यास प्रेक्षा-ध्यान में अत्यन्त उपयोगी है, श्वास-प्रश्वास के इस क्रम में जब श्वास अन्दर फेफड़ों में भरता है तब डायाफ्राम पेट की ओर फैलता है, जिससे पेट और नाभि का हिस्सा सिकुड़ता व फैलता है। सिकुड़न और फैलाव का क्रम इतना स्पष्ट होता है जिस पर चित्त को एकाग्र करना सहज होता है। दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा में सर्वप्रथम इस स्थूल क्रिया पर चित्त को एकाग्र किया जाता है। उसके पश्चात् दोनों नथुनों के भीतर जहां श्वास एक छिद्र में मिलता है, वह संधिस्थल है। वहां पर चित्त को एकाग्र किया जाता है, जिससे अनुभव होने लगता है कि कौन से नथुने से श्वास आ रहा है, कौन से नथुने से प्रश्वास हो रहा है। श्वास और प्रश्वास में उसकी गति, दवाब, स्पर्श और शीतलता एवं उष्णता का अनुभव किया जाता है। कोई भी श्वास और प्रश्वास बिना जानकारी के न अन्दर जाना चाहिए, न बाहर लौटना चाहिए। जहां श्वास वहां चित्त । श्वास और चित्त एकरस बन जाते हैं। श्वास अन्दर जाता है तो चित्त श्वास अन्दर के साथ अन्दर; श्वास बाहर जाए तो चित्त भी श्वास के साथ बाहर। श्वास-प्रेक्षा के इस प्रयोग में श्वास-प्रश्वास की एकलयता बन जाती है। श्वास अन्दर जाकर एक क्षण रुकता है, फिर बाहर की ओर यात्रा करने लगता है। बाहर से पुनः अन्दर की ओर लौटते समय भी एक क्षण बाहर श्वास रुकता है। कुछ दिनों के अभ्यास के पश्चात् श्वास और प्रश्वास को पांच-पांच सैकण्ड तक अन्दर और बाहर रोका जा सकता है जिसे श्वास संयम कहा जाता है। समवृत्ति-श्वास-प्रेक्षा का प्रयोग श्वास-प्रेक्षा के दो सप्ताह के अभ्यास के पश्चात् समवृत्ति श्वास-प्रेक्षा का अभ्यास किया जा सकता है। समवृत्ति श्वास-प्रेक्षा में संकल्प से श्वास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy