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स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग
क्रोध के आवेग को शमन करने की सरल विधि है - दीर्घ श्वास- प्रेक्षा । दीर्घ श्वास- प्रेक्षा एक रसायन है जिससे व्यक्ति के अन्तरंग स्रावों का परिवर्तन होने लगता है। आवेग अथवा उप-आवेग के उत्तेजित होते ही श्वास भी चंचल हो जाता है। अतः आवेग के शमन का पहला सूत्र है - श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया को सम्यक् एवं दीर्घ बनाना । जीवन की व्यस्तता तथा त्वरा ने मानव के मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न किया है जिसका सीधा प्रभाव श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया पर होता है। तनाव से श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया यथार्थ न रह कर विपरीत होने लगती है। छोटे बच्चे को देखें, श्वास-प्रश्वास के समय उसकी नाभि व पेट स्वाभाविक रूप से फूलते व सिकुड़ते हैं । यही सही विधि है । स्वाभाविक क्रिया के लिए उसे किसी से प्रशिक्षण लेने की आवश्यकता नहीं है। श्वास-प्रश्वास अस्वाभाविक तब होता है जब कोई व्यक्ति भूख प्यास अथवा अन्य आवेगों से ग्रसित हो जाता है।
प्रज्ञा की परिक्रमा
श्वास-प्रश्वास की क्रिया को संतुलित रखने का तात्पर्य है - शान्त रह कर श्वास-प्रश्वास को दीर्घ एवं लय-बद्ध बनाना । दीर्घ- श्वास- प्रेक्षा से श्वास पर संयम और चैतन्य की जागरूकता बढ़ती है । जागरूक अवस्था में आवेग को उत्पन्न होने और ठहरने का अवसर नहीं मिलता। स्वभाव - परिवर्तन के लिए श्वास- प्रेक्षा अत्यधिक सरल प्रक्रिया है ।
दीर्घ श्वास से रक्त कणों में परिवर्तन होने लगता है। रक्त का परिवर्तन न केवल शरीर को प्रभावित करता है, अपितु स्वभाव पर भी अपना प्रभाव डालता है जिससे व्यक्ति आवेश और आवेग पर संयम करने में सक्षम होने लगता है। दीर्घ श्वास का अभ्यास चित्त को शान्त बनाता है। जब भी कोई आवेगात्मक स्थिति का मानस पर आक्रमण होता है, वह सर्वप्रथम श्वास को चंचल और विषम बनाता है। चचलता और विषमता उतरते ही प्रेक्षा का साधक जागरूक होकर उसकी प्रेक्षा करने लगता है जिसका परिणाम है- आवेग की उपशान्ति । आवेगात्मक स्थितियां बेहोशी में ही अधिक बढ़ती हैं ।
दीर्घ श्वास- प्रेक्षा की प्रक्रिया
दीर्घ श्वास-प्रेक्षा की प्रक्रिया में सर्वप्रथम सुखपूर्वक किसी स्थिर आसन में ठहरा जाता है । मेरूदण्ड (रीढ़ की हड्डी) को सीधा रख कर गर्दन को
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