________________
११०
प्रज्ञा की परिक्रमा को बाएं नथुने से ग्रहण कर दाएं नथुने से प्रश्वास किया जाता है। फिर दाएं नथुने से श्वास ग्रहण कर बाएं नथुने से प्रश्वास किया जाता है। यह क्रम केवल संकल्प से किया जाता है। प्रारम्भ में संकल्प से केवल चित्त को बाएं नथुने के साथ अन्दर ले जाते हैं। दाहिने नथुने से चित्त को प्रश्वास के साथ बाहर लाते हैं। पुनः दाहिने से चित्त और श्वास को अन्दर ले जाते हैं, बाएं से बाहर प्रश्वास करते हैं। यह क्रम यदि किसी से संकल्प से नहीं होता है, तो दाहिने हाथ के अंगूठे से नथुने को बंद कर अनुलोम-विलोम प्राणायाम की तरह श्वास-प्रश्वास भी किया जा सकता है। अभ्यास होने के पश्चात् हाथ के अंगूठे का उपयोग नथुनों पर नहीं करना चाहिए ।
श्वास- प्रेक्षा का यह अभ्यास प्रेक्षा प्रशिक्षण शिविर अथवा प्रेक्षा प्रशिक्षक के निर्देशन में सरलता से सीखा जा सकता है। दीर्घ- श्वास-प्रेक्षा का प्रतिदिन पन्द्रह मिनट का अभ्यास स्वभाव - परिवर्तन की भूमिका का निर्माण कर देता है ।
कायोत्सर्ग में परिवर्तन के प्रयोग
किसी वृत्ति का पुनरावर्तन स्वभाव बन जाता हे। स्वभाव की प्रगाढ़ता आदत बन जाती है। आदत से मूर्च्छा इतनी गहरी हो जाती है कि व्यक्ति को चाहे अनचाहे उसमें संलग्न होना पड़ता है। व्यक्ति की यह परवशता स्वतंत्रता को लांघ जाती है। उसका पौरुष पराक्रमी नहीं रहता । किसी भी स्थिति में अपने आप को असहाय अनुभव करता है। आवेग की स्थिति में
आने आप को असहाय अनुभव करता है। आवेग की स्थिति में जो घटनाएं घटती हैं, उनसे वह स्वयं आश्चर्य चकित रह जाता है कि यह कैसे हो गया? बहुधा तो ऐसा होता है कि उसने कितनी बार आवेश में गाली बोलना, हाथ चलाना आदि क्रियाओं को न करने का निश्चय किया, परन्तु अवसर आते ही वे सब बातें स्वतः दुहरा दी गईं।
शराब, सिगरेट, अफीम, भांग, गांजा, सुल्फा, मिरजुवाना, एल. एस. डी. आदि नशीले पदार्थों के उपयोग न करने का कितनी बार मानसिक निश्चय किया जाता है, वाचिक संकल्प दुहराया जाता है, लेकिन समय आते ही सब निश्चय और संकल्प तिरोहित हो जाते हैं न जाने कहां से एक तरंग उठती है, व्यक्ति सारे निश्चयों और संकल्पों को तोड़ कर नशे की आदत से ग्रसित हो जाता है। समझाने वाले लोगों की कमी नहीं है, बुद्धि के स्तर पर वह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org