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________________ १११ स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग समझ भी जाता है, किन्तु उसकी क्रियान्विति नहीं हो पाती । वह व्यसन मुक्त नहीं रह पाता, व्यसनों की गिरफ्त में आ जाता है। व्यसन मानो उसके प्राणों में घुल गए हों। उपदेशकों के उपदेश सुनकर वह भी हैरान हो जाता है कि क्या करें ? व्यसन-मुक्ति चाहते हुए भी व्यसन से मुक्त क्यों नहीं हो पाता है ? प्रश्न सामयिक और आवश्यक भी है। क्या कठिनाई है कि जिससे व्यक्ति व्यसन और आवेग से मुक्ति की आकांक्षा होते हुए मुक्त नहीं हो पाता है। आवेग और व्यसन शरीर, मन, बुद्धि और चैतन्य को प्रभावित करते हैं। उससे प्रभावित चैतन्य, बुद्धि, मन और शरीर विभिन्न प्रवृत्तियों में संलग्न होते हैं। परिणाम यह होता है कि हमें लगता है कि बुद्धि ऐसा कैसे कर रही है, मन ऐसे कैसे हो रहा है ? शरीर पर ऐसा कैसे हो रहा है ? प्रश्न सीधा है, उसका समाधान भी सीधा है। आवेग और व्यसन शरीर के साथ जुड़ कर उससे संबंधित सभी पक्षों को प्रभावित करते हैं। आवेग और व्यसन-मुक्ति के सदुपदेश, अथवा मानसिकता से उभरे प्रश्न का सरल समाधान है। व्यसन और आवेग जहां अन्तर् मानस, वृत्तियों से उभर कर प्राण में फैलते हैं उसे मिटाने हेतु जो व्यवस्था अथवा सदुपदेश दिया जाता है, वह शरीर के स्तर पर स्थूल मन और बुद्धि तक जाता है। मनोविज्ञान मान रहा है-मन के पीछे भी अन्तर्मन है, जो स्थूल चित्त पर उतर रहे प्रतिबिम्बों का आधार है। ये प्रतिबिम्ब और तरगें अन्तर् से आती है। अन्तर्मन के पीछे भी अति सूक्ष्म मन अथवा वृत्तियां हैं जो अन्तर्मन और स्थूल मन को आन्दोलित करती रहती अन्तर् चित्त की व्यसन-मुक्ति ___ मन, अन्तर्मन, सूक्ष्म-मन, वृत्तियां-इनसे समुद्भूत संस्कारों का कैसे विलय हो, जिससे आवेग और आवेश एवं व्यसनों से मुक्ति पाई जा सके, पर स्थूल मन और स्नायुतन्तुओं का नैरन्तरिक अभ्यास आवेग और व्यसनों से मुक्त होने में बाधक बनता है। यदि सही सच्चाई है, तब साधना अथवा स्वभाव परिवर्तन की चर्चा का क्या मूल्य रह जाता है ! स्वभाव-परिवर्तन के प्रयोग की क्या अपेक्षा है ? प्रतिप्रश्न से भी समस्या का समाधान नहीं हो पाता। स्वभाव परिवर्तन के इस प्रश्न को दो कोणों से समाहित किया जा सकता है। पहला कोण है-बुद्धि और चेतन के स्तर पर आई हुई समस्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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