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________________ ११२ प्रज्ञा की परिक्रमा को बुद्धि और चिन्तन से परिष्कृत करना। दूसरा कोण है-अन्तरंग भाव और संस्कारों को अभ्यास द्वारा रूपान्तरित करना। आवेग क्यों, कैसे, किस प्रकार उदय में आते हैं ? उनको उत्तेजित करने वाली कौन-सी परिस्थितियां हैं ? इस विश्लेषणात्मक चिन्तन से वेग स्वतः मन्द होने लगता है। क्रोध, काम, मोह से उत्पन्न तरंगों से शरीर में क्या-कया रूपान्तरण हो जाता है जिससे आवेग तिरोहित होने लगता है। व्यसनों की भी प्रारम्भिक स्थिति यही हैं जिन आकर्षणों अथवा साथियों के उत्प्रेरण से व्यक्ति व्यसनों की ओर उन्मुख होता है, समय पर उचित परामर्श, उनसे होने वाली दुरावस्था के प्रति यथार्थ बोध पाकर व्यक्ति व्यसन-मुक्त हो जाता है, यह अवस्था प्रारम्भिक है। व्यसन और आवेग अभी तक आदत नहीं बने हैं, केवल आकर्षण इस ओर प्रेरित करता है। जब अन्तर्मन और सूक्ष्म-मन पर आवेग और व्यसन की परतें गहरी जम जाती हैं। तब उनको वहां से हटाना अत्यन्त कठिन हो जाता है। यह अवस्था आदत कहलाती है। उसे परिवर्तित करने के लिए कायोत्सर्ग में संकल्प का उपयोग किया जाता है। कायोत्सर्ग का उपयोग कायोत्सर्ग शरीर की शिथिलता के साथ चैतन्य को जागृत रखता है। इसमें शरीर की सक्रियता स्थूल रूप से विराम पा लेती है। विराम की इस स्थिति में चेतन मन सो जाता है, अन्तर्मन जागृत होने लगता है। अन्तर्मन जिन संस्कारों से संस्कारित है उसका प्रभाव हमारे जागृत मन पर आता है, अतः जिस व्यसन से मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं, अन्तर्मन उसे छोड़ना नहीं चाहता है। अन्तर्मन से भी आगे सूक्ष्म मन एवं वृत्तियों में वे गहरे पैठे हुए हैं। उन व्यसनों को निर्मूल करना अत्यन्त दुरूह है। कायोत्सर्ग, प्रायश्चित, विशोधि निशल्यकरण की प्रक्रिया है। जमे हुए संस्कारों को परिमार्जित अथवा विलय कायोत्सर्ग द्वारा किया जाता है। कायोत्सर्ग साधना पद्धति का महत्त्वूपर्ण अंग है। कायोत्सर्ग से शरीर के प्रत्येक अवयव को शिथिल कर श्वास को मन्द और शान्त बनाया जाता है। स्थूल मन को भी निर्विषयी बना कर अन्तर् और सूक्ष्म मन की गांठों (ग्रंथियों) को सुझावों (भावना) के द्वारा खोला जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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