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________________ साधक जब इस सत्य को जान लेता है तो वह दुःख-मुक्ति के मार्ग में प्रवेश कर जाता है, एवं क्रमशः उस मार्ग की प्रतीति उसे स्पष्ट रूप से होने लगती है। साधक अब समझ लेता है कि सत्य का अन्वेषण मुझे स्वयं ही करना है, एवं सर्वभूतों के प्रति मैत्री भावना के अभ्यास से वैराग्य सुदृढ़ बनता है एवं वैराग्य के साथ-साथ प्रज्ञा विकसित होती है, जो साधक को तत्त्व साक्षात्कार कराती है। प्रेक्षा-ध्यान का अन्तिम ध्येय तत्त्व साक्षात्कार ही है, जिसकी सिद्धि मैत्री एवं वैराग्य भावनाओं के द्वारा संपन्न होती है। प्रस्तुत संकलन 'प्रज्ञा की परिक्रमा' के अध्ययन से प्रज्ञा और प्रेक्षा के विषय में कई नवीन तत्त्व मेरे ध्यान में आए हैं। मेरे उपर्युक्त कथनों के आधार ये तत्त्व ही हैं। प्रेक्षा अभ्यास के कई पहलू ऐसे हैं जो आसानी से अभ्यासियों के समझ में नहीं आते। प्रस्तुत संकलन के अध्ययन से यह पहलू सहज ही स्पष्ट हो जाते हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि प्रेक्षा शिविरार्थी इस पुस्तक के अध्ययन से लाभान्वित होंगे। अपने पथ में उनकी रूचि बढ़ेगी। ध्यानाभ्यासियों के लिए अपने मार्ग पर विश्वास होना अत्यन्त आवश्यक है। आलोच्य संकलन इस दिशा में निर्देशन करने में सफल होगा यह मेरी सुदृढ़ धारणा है। ___अन्त में रचनाकार मुनिश्री किशनलाल जी के बारे में कुछ कहना अप्रासंगिक नहीं होगा। आप ३० सालों से साधना मार्ग में लगे हुए हैं। युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी तथा युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का अनुग्रह ही उनकी साधना का सम्बल रहा है, एवं कई विश्वविख्यात साधकों से इनका संपर्क हुआ है, जिनमें उल्लेखनीय है-जे० कृष्ण मूर्ति, माताजी, अरविंद आश्रम महेश योगी, स्वामी मुक्ता नन्द आदि। इन सम्पर्कों का लाभ आपने विवेक पूर्वक उठाया। आपने विपश्यना का अभ्यास भी विशेष रूप से किया। अब प्रेक्षाध्यान के अन्तर्गत जिन-जिन विशिष्ट विद्याओं का संयोजन किया गया है उन सभी का सूक्ष्म अनुशीलन कर के सही प्रकार साधकों को प्रशिक्षित करने में आपने सफलता प्राप्त की हैं। भविष्य में प्रेक्षा-ध्यान के विकास में आपका सहयोग अभ्यार्थियों को सतत मिलता रहेगा ऐसी मेरी शुभ कामना हैं। जोधपुर ता० ७-११-८४ नथमल टाटिया अनेकान्त शोघ पीठ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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