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________________ ४८ प्रज्ञा की परिक्रमा भावना शरीर पर व्यक्त और स्थूलरूप धारण करती है। चित्त की निर्विकारता शरीर को उत्तेजना से दूर कर देती है। मैथून की प्रगाढ़ता स्थूल से सूक्ष्म स्तर पर आती है। वहां पर वह कला, मैत्री, प्रमोदभाव, जीवन की उदात्त भावनाओं में रूपान्तरित होकर समाज को सृजन की शक्ति प्रदान करती है। नवशक्ति का विकास संयोग से होता है। संयोग एक सत्य है। संयोग का निश्चित वियोग है। वियोग के कोण से दृष्टिपात करने से संयोग की अनित्यता अनुभव होने लगती है। संयोग के दृष्टिकोण से वियोग नश्वर है। संयोग और वियोग से पार अस्तित्व की अनुभूति है। जहां संयोग और वियोग की शक्ति के पार अस्तित्व की ऊर्जा का जागरण हो जाता है। अस्तित्व की ऊर्जा के जागरण के समय मैथुनशक्ति का आकर्षण गिर जाता है। वह विराट अस्तित्व से संयुक्त बन जाता है। उसका यह मिलन मैत्री, शक्ति, ज्ञान को श्रद्धा से अभिभूत बना देती है। व्यक्ति फिर व्यक्ति नहीं विराट अस्तित्व में परमात्मा की अवधारणा को उपलब्ध हो जाता है। संग्रह की संज्ञा परिग्रह __ शरीर की सुरक्षा के लिए आहार का संग्रह प्राणी करता है। आहार शरीर को धारण करने के लिए आवश्यक है। तो दीर्घकाल तक आहार की संपूर्ति के लिए संग्रह भी सहज हो जाता है। संग्रह की भूलभूत वृत्ति को परिग्रह की संज्ञा से सूचन किया जाता है। आहार का संग्रह जीवन को सुरक्षित करने के लिए करना है। उसी प्रकार भय से अनिष्ट के लिए अस्त्र-शस्त्र का संग्रह एवं निर्माण करता है। सुरक्षा की सारी व्यवस्था इसके इर्द-गिर्द परिक्रमा देती है। मैथुन के लिए सुविधाओं का संकलन, अपने अधीनस्थ रखना यह सब परिग्रह की सुरक्षा है। परिग्रह क्या है ? इस प्रश्न पर चिन्तन करते हैं तो दो बातें स्पष्ट होती हैं। एक पदार्थ और दूसरा उसके प्रति ममत्व । पदार्थ परिग्रह है अथवा उसके प्रति जो आकर्षण, ममत्व है, वह परिग्रह है। भगवान महावीर ने परिग्रह की व्याख्या करते हुए स्पष्ट उद्घोषणा की मूच्छा परिग्गहो वुत्तो मूर्छा परिग्रह है। पदार्थ के प्रति ममत्व है वह प्राणी की ओर से है, पदार्थ की ओर से कुछ नहीं। पदार्थ पर ममत्व करें तब भी पदार्थ रहेगा। उसके गुण सत्ता में कोई परिवर्तन नहीं आता। लेकिन व्यक्ति यदि ममत्व करता है तो उसके गुण और भावों में परिवर्तन आ जाता है। वह परिवर्तन उसके अस्तित्व को भी प्रभावित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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