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________________ व्यक्तित्व का अंकन करें ३ भाषा स्थूल होने से जहां बाहर से प्रियता - अप्रियता उत्पन्न करती है। वैसे ही मुद्राएं भी अपना प्रभाव छोड़ती हैं। भाषा की एक स्वरता से संगीत उत्पन्न हो जाता है, जिसे सुनकर व्यक्ति मुग्ध बन जाता है। मुद्राएं भी अन्तर की समलयता का प्रतीक है। मुद्राओं की समलयता से अन्तरंग भी सम होने लगता है । बाह्य व्यक्ति प्रारम्भ में आकर्षण उत्पन्न करता है । यदि अन्तरंग भी वैसा ही पावन होता है तब तो सोने में सुगन्ध उत्पन्न हो जाती है । राजा भोज की राज्य सभा जुड़ी हुईं थी। बड़े-बड़े विद्वान् आसानों पर विराजमान थे। एक पुरुष सुन्दर आभूषणों से विभूषित राज सभा में उपस्थित हुआ। राजा भोज सिंहासन से उठे और पुरुष का अभिवादन कर सम्मान किया। ऊंचे आसन बैठाया। उस समय फिर एक व्यक्ति फटे-पुराने कपड़े पहने हुए सभा में आया । राजा ने कोई ध्यान नहीं दिया। वह एक किनारे बैठ गया। सभा की कार्यवाही चलने लगी । विद्वानों के वक्तव्य हुए, चर्चा - परिचर्चा चली। फटे कपड़े पहने हुए जो व्यक्ति था, वह व्यक्ति प्रभावशाली वक्ता एवं विद्वान था। सभा विसर्जित हुईं सुन्दर कपड़े वाला व्यक्ति भी चला । भोज वैसे ही बैठे रहे । फटे कपड़ों में लिपटा व्यक्ति जब उठकर चलने लगा। राजा भोज स्वयं उसके साथ दरवाजे तक गए । विविध तरह के वस्त्राभूषण से सम्मानित किया । वापिस लौटने पर विद्वानों ने पूछा- राजन् ! आते समय विभूषित व्यक्ति को सम्मानित किया और जाते समय फटे-पुराने वस्त्र वाले को । आते समय सम्मान बाह्य व्यक्तित्व का था और जाते समय I विद्वान् और अन्तरंग व्यक्तित्व का था । अन्तरंग व्यक्तित्व का स्वरूप अन्तरंग व्यक्तित्व का अनुभव विचारों के सिलसिले से होने लगता है। विचार व्यक्ति के चित्त से उठने वाला संकेत है कि वह कैसा जीवन जी रहा है । रचनात्मक और विध्वंसात्मक विचारों के दो विभाग कर व्यक्तित्व को सम्यक् प्रकार से समझ सकते हैं। रचनात्मक विचार समता, प्रेम और करूणा से प्रस्फुटित होते हैं । विध्वंसात्मक विचार विषमता, घृणा और विद्वेष से प्रस्फुटित होते हैं । व्यक्ति में निर्माण और विध्वंस दोनों शक्तियां हैं। उसका उपयोग वह किसमें करता हैं, यह उसके व्यवहार पर निर्भर है। व्यक्ति सामाजिक प्राणी है। समाज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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