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________________ प्रज्ञा की परिक्रमा के लिए प्रारम्भ में मान्यता की नौका पर चढ़ना होता है। परिणाम से पूर्व दूसरों के अनुभूत यथार्थ को स्वीकार करना ही पूर्व मान्यता है । व्यक्ति यथार्थ में कम जीता है मान्यता में ज्यादा । यथार्थ में जीने का तात्पर्य है अनुभव में जीना । अनुभव में जीने वाला वर्तमान में जीता है। वर्तमान में जीने की कला ही प्रेक्षा है । प्रेक्षा करने वाला ही अपना अंकन कर सकता है । व्यक्ति की सबसे बड़ी पीड़ा यही है कि वह अपने आपका साक्षात् नहीं करता, अपितु दूसरे उसके सम्बन्ध में क्या कहते हैं, क्या मानते हैं, उसके अनुसार अपना निर्णय करता है। दूसरे उसके सम्बन्ध में क्या जानेंगे? क्योंकि स्वयं का स्वयं के द्वारा साक्षात् कर पाना कठिन होता है तब भला दूसरा उसके बारे में कैसे अंकन करेंगा ? जो अंकन करेगा वह कितना यथार्थ होगा यह विचारणीय प्रश्न है । व्यक्ति के तीन चित्र व्यक्ति अपने आपको समाज के सम्मुख जो नहीं है, उसे दिखाने की कोशिश करता है । व्यक्ति के तीन चित्र हैं- लोग उसे किसी रूप में समझते हैं, दूसरे में वह किस रूप में जीता है, तीसरे में वह अपने आपको प्रस्तुत करता हैं। अधिक लोग दूसरों की धारणाओं से ही अपने आपका अंकन करते हैं, या फिर समाज, धर्म अथवा आदर्श के अनुरूप अपने आपको प्रस्तुत करते हैं जिससे लोग उसे उस रूप में समझें। जब स्वयं ही स्वयं को उस आदर्श के अनुरूप नहीं समझता हैं, तब दूसरे उसको उस रूप में कैसे समझेंगे ? मनुष्य की यह आत्म वंचना ही है कि वह जिस रूप में जी रहा है, उस रूप को स्वीकार न कर, आदर्श चित्र को प्रस्तुत करता है। तीनों चित्रों में पहला मान्यता है, तो दूसरा यथार्थ और तीसरा अयथार्थ । बाह्य व्यक्तित्व का अंकन प्रथम दर्शन में व्यक्ति का बाह्य व्यक्तित्व ही अभिव्यक्त होता है। लोग उसके आकार-प्रकार वेशभूषा से आकर्षित होते हैं। वेशभूषा, आकार-प्रकार कोई महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं हैं, फिर भी यह निश्चित सत्य है कि व्यक्ति का इन्द्रिय गुणों की ओर चित्त आकर्षित होता है। व्यक्ति का गमनागमन, क्रियाप्रतिक्रिया, हाव-भाव आदि भी दूसरों को प्रभावित करते हैं। शरीर की मुद्राएं भी भाषा की तरह दर्शक को खींचती हैं। शरीर की आकृतियां मूक भाषा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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