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________________ व्यक्तित्व का अंकन करें आप कौन है ? कहां से आए हैं ? क्या करते हैं ? प्रश्नों की एक लम्बी श्रृंखला निरन्तर दूसरों के परिचय के लिए निकलती रहती है। हर व्यक्ति दूसरों के सम्बन्ध में जितना जानने का प्रयत्न करता है। भूल से भी अपने बारे में उसके मानस में किंचित् जिज्ञासा नहीं उभरती। यह कैसी विडंबना है ? मनुष्य का व्यक्तित्व किन घटकों से निर्मित हैं कि उसकी दृष्टि बाहर की ओर रहती है। आभ्यन्तर की ओर उसे ख्याल भी नहीं आता कि कोई अस्तित्व निरन्तर क्रियाशील है, जिसकी सक्रियता ही ज्ञान-विज्ञान को उत्पन्न कर रही है। शान्ति की अमिट अभीप्सा शान्ति और मुक्ति की निरन्तर अभीप्सा इस तथ्य का साक्षी है कि हमारा अस्तित्व केवल पदार्थ को उपलब्ध होने के लिए ही नहीं है। अस्तित्व की धारा पदार्थ एवं बाहिर को पाकर भी अतृप्त और अशान्त बनी रहती है। इस जगत् में प्राणी शान्ति और सुख के लिए पदार्थ की ओर यात्रा करता है। पदार्थ से शान्ति और सुख की उपलब्धि नहीं होती, अपितु प्राणी की सक्रियता इससे भरने लगती है। तब उसे ऐसा एहसास होने लगता है कि कुछ तो हो रहा है। यह होना ही उसमें मिथ्या भ्रम पैदा कर देता है। जो अंहकार और ममकार को उत्पन्न करता है। ममकार जब अन्य पर अधिकार जमाने लगता है तब विद्वेष और क्रोध उत्पन्न होता है। विद्वेष से कलह और अशान्ति उत्पन्न होती है। अशान्ति हिंसा का प्रतिबिम्ब है। हिंसा से प्रतिहिंसा, प्रतिहिंसा से युद्ध फिर इसका वृत्त बन जाता है। जिसका कहीं कभी अन्त नहीं होता। अंकन में बाधक मान्यता मान्यता मान्यता ही होती है। वह कैसी, किस सम्बन्ध में ही क्यों न की गई हो। मान्यता का अपना मूल्य होता है, किन्तु अन्त तक वह मान्यता ही रहती है जब तक वह यथार्थ को उद्घाटित नहीं कर पाती । यथार्थ की यात्रा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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