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प्रज्ञा की परिक्रमा
धर्म सम्प्रदाय अपने संख्या बल को बढ़ाने की दृष्टि से अशिक्षित अथवा किसी कठिनाई से पीड़ित वर्ग को शिक्षा, सेवा स्वास्थ्य अथवा आर्थिक प्रलोभनों से प्रभावित कर संस्कारी करने की कोशिश करते हैं। सचमुच यह शोषण का तरीका है, जिससे व्यक्ति के विकास के बजाय अपने निहीत स्वार्थों की पृर्ति का ध्यान मुख्य रहता है।
विस्तार प्रसार की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार माना गया है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं हो सकता कि विकसित समाज अविकसित वर्ग को अपने धन, सत्ता आदि से प्रताडित अथवा शोषित करें। विचार अथवा संस्कारों के नाम पर अपनी सत्ता और शासन की पकड़ को मजबूत बनाना ही शोषण के तरीकों में आता है। संस्कार निर्माण और महावीर
भगवान् महावीर ने केवल अपने विचारों के प्रसार के लिए जनता के बीच प्रवचन नहीं किया, अपितु जीव-जाति के विकास के लिए, दया के लिए प्रवचन किया। जिससे वह बन्धन से मुक्त होकर अपने स्वरूप में उपस्थित हो सके। उनके दर्शन ने स्वयं से सत्य को खोजने और उपलब्ध होने का मार्ग ही सुझाया। स्वयं से स्वयं के आत्म-निरीक्षण से चैतन्य की उस विराट भूमि को उपलब्ध किया जा सकता है जहां सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, मान-अपमान के पार वीतरागता की सार्वभौम सत्ता को पाकर अनन्त ज्ञान, श्रद्धा, शक्ति और आनन्द को उपलब्ध हो जाते
हैं।
जहां व्यक्ति विकास का प्रश्न है उसे कोई इंकार नहीं करता ! व्यक्ति के विकास के नाम पर मनमाने विचार अथवा व्यवहार एवं संस्कारों को थोपना क्या उचित कहा जा सकता है।
संस्कारक इतना तो कर सकता है जो लिखने को उत्सुक हो उसे वह अपने अनुभव से मार्ग दर्शन कर सकता है। उसने संस्कारों द्वारा कैसे जीवन को जिया है। उससे यदि किसी का समाधान हो तो उसे वह स्वीकार करें। संस्कार रूपान्तरण और प्रेक्षा
संस्कारों को बच्चा गर्भ से लेकर जीवन पर्यन्त ग्रहण करता है। हो सकता है कुछ संस्कार परिवार से, समाज और वातावरण से ग्रहण किए हों, वे संस्कार
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