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प्रज्ञा की परिक्रमा उपलब्ध हो सके। जिन व्यक्तियों ने सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप का अनुशरण किया उनको भी आनन्द, शान्ति और ज्ञान की उपलब्धि हुईं । वे भी ऋषभ की तरह शान्त और ममता से परिपूर्ण हो गये ।
धर्म जीवन का विज्ञान है। धर्म को जीना होता है। जिसको जी कर ही अनुभव किया जा सकता हो, वह चर्चा अथवा बाह्य उपचार विधियों से कैसे उपलब्ध हो सकता है।
आज धर्म की दयनीय स्थिति इसलिए हो रही है कि धर्म की तेजस्विता आचरण एवं जीवन व्यवहार में प्रकट नहीं हो रही है। धर्म की तेजस्विता को प्रकट करने का एक ही मार्ग है-धर्म का जीवन व्यवहार में प्रयोग | प्रयोग ही निश्चित परिणाम लाता है, प्रयोग के बिना धर्म की तेजस्विता न आज प्रगट हुई न भविष्य में होगी ।
धर्म के प्रयोग से अनुभव स्वयं होने लगता है। जिसे अनुभव होता है फिर दुनिया की कोई भी शक्ति उस मार्ग से वंचित नहीं कर सकती। जो उस मार्ग से हट जाता है, निश्चित रूप से उसे धर्म का कोई अनुभव नहीं हुआ । उसने केवल अनुकरण किया है। अनुकरणधर्मी को सहारे की आवश्यकता सदैव होती है। उसे चलाने वाले की आवश्यकता होती है। उसके लिए श्रद्धा के उपदेश की बातें ही कर्ण प्रिय होती है। उससे दर्शन एवं वाचना के सिवाय कुछ भी उपलब्ध नहीं हो सकता है ।
भोजन करने से क्षुधा शान्त और शरीर पुष्ट होता है। पानी पीने से प्यास शान्त और गर्मी उपशान्त होती है। वैसे ही धर्म के प्रयोग से अध्यात्म का जागरण, शान्ति और ज्ञान प्राप्त होता है। निश्चित ही उसका अध्यात्म जागृत हो गया, उसका धर्म जागृत हो गया। उसे न किसी पर श्रद्धा की अपेक्षा होती है, उसके लिए स्वयं का सहारा काफी है । उससे ही उसके धर्म की अखंड लौ, स्वयं आलोकित होगी। उसका धर्म न पंगु रहेगा और न क्लीव होगा, बल्कि अनन्त शक्ति सम्पन्न बन जीवन धर्म होगा ।
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