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________________ क्या पंगु है धर्म ? उसकी प्रेरणा से ऋषभ-साम्राज्य से विरत हो गये। परिवार के ममत्व से मुक्त हो गये। उनके लिये अपने और पराए की रेखा न रही। महल और जंगल की सीमाओं को पार कर गये। मेरा कहने के लिए उनके पास कुछ नहीं था। वे मौन, खाली हाथ, नंगे बदन, अपनी मस्ती से निकल पड़े। प्रफुल्लित, आनन्दित भाव से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे थे। अद्भुत घटना थी विश्व की। विराट् वैभव का स्वामी सब कुछ परित्याग कर मस्ती से मानों कोई राजमुकुट पहने अपने राज्य का संचालन कर रहा हो। ऋषभ के अन्तःकरण में धर्म का अंकुर फूट रहा था। यह सब उसका ही परिणाम और रूपान्तरण था। भगवान् ऋषभ कोई अन्य कारण से यह नहीं कर रहे थे। धर्म जागरण का परिणाम है-श्रद्धा, सहनशीलता, आनन्द और ज्ञान । भगवान् ऋषभ को खाना नहीं मिल रहा था, क्योंकि भिक्षा की व्यवस्था को कोई जानता ही नहीं था। वे इस स्थिति में भी समता में थे, शान्ति में थे। भगवान् ऋषभ ने साधना पथ को स्वीकार किया। उनकी इस मूक चर्या को देख चार हजार सामन्त, मंत्री आदि राजपुरुषों ने ऋषभ का अनुकरण किया । वे भी मूक ऋषभ का अनुकरण करते जा रहे थे। ऋषभ कहीं रुकते, वे भी रुक जाते। ऋषभ खड़े रहते, वे भी खड़े रह जाते। वे चलते, वे भी चल पड़ते। जब ऋषभ आंखे बन्द कर श्वास-प्रेक्षा करते अथवा शरीरप्रेक्षा, चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा, वे सब भी आंखें बन्द कर लेते । भगवान् ऋषभ आनन्दित थे। उनकी आंखों की रोशनी से करुणा प्रस्फुटित हो रही थी, लेकिन ऋषभ का अनुकरण करने वाले सामन्त, मंत्रीगण, ऊपर से भगवान् ऋषभ की तरह करते, किन्तु अन्तःकरण में आनन्द नहीं। शान्ति नहीं । ज्ञान नहीं। बेचैनी, क्लेश और नाना संकल्पविकल्प आन्दोलित हो रहे थे। कुछ दिन तो अन्धानुकरण श्रद्धावश चलता रहा, लेकिन अन्धानुकरण ज्यादा चल नहीं सकता, क्योंकि अन्दर से आन्दोलित होने वाली अशान्ति, क्लेश बाहर फूटे बिना नहीं रह सकते। उनमें से अनेकों विद्वेष से भर गये और साथ छोड़कर नदियों के किनारे पहाड़ों की गुफाओं में अपने आश्रम बनाकर रहने लगे। जो पास आते, उन्हें क्रियाकाण्ड एवं बाह्य-उपासनाएं सिखाते। भगवान् ऋषभ अपनी अन्तःसाधना में विलीन हो गये। उनको कैवल्य उपलब्ध हो गया। कैवल्य की उपलब्धि के पश्चात् उन्होंने अपना मौन खोला, साधना के विभिन्न आयामों का निरूपण किया। धर्म का यह निरूपण आध्यात्म की उपलब्धि का संकेत मात्र था। जिससे व्यक्ति अध्यात्म के स्वरूप को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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