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अभिनव सामायिक अनुष्ठान
१२५ में प्रयत्न नहीं करें। सुख पूर्वक जितना लम्बा, गहरा श्वास-प्रश्वास आता है. उसे धीरे-धीरे वैसे ही आने दें।
दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा केवल श्वास और प्रश्वास का नियमन नहीं है। श्वास-प्रेक्षा मन वाक् और शरीर को स्थिर, शान्त बनाने का अचूक तरीका है। श्वास और मन एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। श्वास शान्त एवं दीर्घ होते ही मन शान्त और स्थिर होने लगता है। काम, क्रोध, आवेगात्मक स्थिति में श्वास सर्वप्रथम उत्तेजित होता है। श्वास उपशान्त होते ही आवेग स्वयं उपशान्त होने लगता है। श्वास-प्रेक्षा से आवेग का शमन होता है। दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा से शुद्ध वाय फेफड़ों में अधिक मात्रा में पहुंचता है। दीर्घ-रेचन से फेफड़ों में ठहरा हुआ कार्बनडाइ आक्साइड (दूषित वायु) बाहर निकलता है जिसका सीधा असर व्यक्ति के स्वास्थ्य पर आता है, वह अपने आप को स्वस्थ और शान्त अनुभव करने लगता है। मन की चंचलता का भी श्वास-प्रेक्षा से निरसन होने लगता है। श्वास-प्रेक्षा से चित्त सरलता से एकाग्र हो वर्तमान में उपस्थिति रहने लगता है, जिससे समता सहज फलित होती है।
तीसरा प्रयोग-त्रिगुप्ति की आराधना अथवा प्रेक्षा-ध्यान है। मन, वाणी और काया को स्थिर करते हुए समता के भाव में चित्त को लीन करें। शरीर को शिथिल रखें। स्वर-यंत्र को भी शिथिल करें। विचार स्थिरता के पश्चात् दर्शन-केन्द्र पर चित्त को केन्द्रित करते हुए वहां पर होने वाले स्पंदन, कम्पन, भारीपन, हल्कापन या अरुण (लाल रंग) ज्योति का अनुभव करें। इस प्रकार १५ मिनट "अ सि आ उ सा" का जप एवं १५ मिनट दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा, १० मिनट त्रिगुप्ति संयम के अभ्यास से ४० मिनट होते हैं। सामायिक का प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग आदि में लगभग ५ मिनट लग जाते हैं। शेष ५ मिनट में परमेष्ठी-वन्दना एवं सामायिक की आलोचना इस प्रकार ५० मिनट में अभिनव सामायिक का अनुष्ठान पूर्ण हो जाता है। सामायिक की अन्तिम परिणति---मुक्ति
सामायिक का यह आध्यात्मिक क्रम चेतना में अभिनव क्रान्ति को घटित करता है, जिससे व्यक्ति का भाव-परिवर्तन और व्यक्तित्व का सर्वांगीण
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