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________________ १३८ प्रज्ञा की परिक्रमा सत्ता और शासन केवल व्यवस्था के अनुपालन में मात्र व्यक्ति का सहयोग करते हैं | उसके विकास के लिए अनुशासन ही अपेक्षित है। अनुशासन, शासन और सत्ता को भी परिष्कृत बना देता है। उसके परिष्करण से समाज सुव्यवस्थित बनता है। व्यक्ति को विकास का अवसर उपलब्ध होता है। उसकी क्षमताएं अभिव्यक्त होने लगती है। साधना का उपयुक्त अवसर प्राप्त कर व्यक्ति अध्यात्म की ओर अग्रसर होने लगता है। अध्यात्म के प्रस्फुटन के लिए ही तो व्यक्ति अनुशासन को स्वीकार करता है। अनुशासन व्यक्ति स्वातंत्र्य को पुरस्सर करने का अलौकिक मार्ग है। व्यक्ति अनुशासन, सत्ता और शासन के प्रभाव से भावित होकर जहां स्वतंत्रता का तिरस्कार करता है वहां वह अध्यात्मुखी न रहकर लौकिक होने लगता है। लौकिक अनुशासन शासन को ही पुष्ट बनाता है, जहां व्यक्ति स्वतंत्रता से श्वास नहीं ले सकता। उसका परिणाम घुटन और मरण ही निश्चित है। व्यक्ति को जीवन्त और स्वतंत्रता का आकाश देने के लिए अनुशासन को अध्यात्म अभिमुखी अर्थात् स्वशासी ही बनाना होगा। स्वशासन ही अनुशासन को पूर्ण बनाता है। स्व-शासन सभी में स्वयं बुद्धता से प्रगट नहीं होता है। अतः पुरुष का अनुगमन या अनुज्ञा स्वीकार करनी ही होती है। जिससे साधक अपनी मंजिल को सुखपूर्वक प्राप्त कर लेता है। ०००० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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