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संस्कार-प्रवृत्ति या संस्कार मुक्ति
युवा पीढ़ी ने पिछले दो दशकों में जो पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय संस्कारों को क्षति पहुंचाई है शायद ही विगत इतिहास में ऐसी स्थिति आई हो । युवा सदा प्रगतिशील रहा है वह अपने आपको कठिनाई में डालकर भी समस्याओं से जूझता रहा है । परिश्रम में शिक्षा और सम्पन्नता के सुयोग से नई पीढ़ी की प्रवृत्तियों को बचाना और अपनी प्रवृतियों को गतिशील बनाए रखना कहां तक सम्भव हो पाएगा ?
नई पीढ़ी की अपनी आकांक्षा है, अभीप्सा है, गतिशीलता है । कुछ कर गुजरने की प्राणवत्ता है। आखिर उसे संस्कार के नाम पर कब तक रोका जा सकता है ?
संस्कार व्यक्ति की अपनी आवश्यकता है या कुछ मठाधीशों, महन्तों सफेद - पोशों, बुजुर्गों, सन्तों, सम्प्रदायों के प्रमुखों को अपनी पकड़ को सघन बनाने के तौर-तरीके हैं ? आज इन प्रश्नों पर खुलेमन और मस्तिष्क से सोचना होगा। हर प्रश्न को उसके वर्तमान मूल्यों के बिना केवल प्राचीनता के आधार पर अंकन करने की चेष्टा से स्वयं और अन्य किसी के साथ न्याय नहीं होता। किसी भी समस्या के समाधान के लिए उसके सभी पहलुओं पर विचार करना आवश्यक होता है अन्यथा उसके परिणाम यथार्थ नहीं आते।
संस्कार है सम्यक् कृति
संस्कार क्या है ? सीधा सा सवाल है, समाधान इतना सहज नहीं मिलता । कुछ प्रश्न शब्द में नहीं समाते । उनका समाधान भी शब्द की परिधि में आ नहीं पाता । सम्यक् कृति / क्रिया, संस्कार है। ऐसे संस्कार और कर्म समानार्थक हैं। यहां संस्कार का अर्थ आदत, प्रकृति, अनुकरण, परम्परागत विधियों के अनुपालन से है ।
संस्कार के इस अर्थ की अभिव्यञ्जना में केवल सम्यक् कृति अथवा क्रिया काही समावेश नहीं है। अपितु इसमें विस्तृत क्षेत्र आ जाता है। किसे संस्कार
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