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________________ सत्ता, शासन और अनुशासन १३७ समाज की व्यवस्था, नियम, उपनियम को व्यक्ति स्वयं के हित के लिए अनुपालित करता है। कानून, व्यवस्था एवं कल्याणकारी शिक्षाओं को व्यक्ति स्वयं अनुपालन कर राज्य, समाज एवं व्यवस्था में सहयोगी बनें । ___ आदि युग में हकार, मकार और धिक्कार की नीति का प्रचलन था। किसी के अकरणीय कार्य के लिए हा........तुमने यह कार्य किया! वह शर्म से इतना प्रभावित हो जाता कि दुबारा उस कार्य को करने के हिम्मत नहीं जुटा पाता। हकार के पश्चात् निषेध नीति में यह मत करो। कहने से व्यवस्था का संचालन होता रहा। मकार के पश्चात् धिक्कार की नीति चली। जिसमें व्यक्ति को अनुशासित करने के लिए धिक्कार हैं, तुमने सोचा नहीं होगा, ये नीति सूत्र प्रारम्भ में चलते रहे किन्तु मनुष्य जाति की ऋजुता आदि के परिवर्तन के साथ शासन का तन्त्र मजबूत बना। शासन का तंत्र मजबूत बनने से स्वशासी अनुशासन की भावना कम होने लगी। शासन का विकास ताड़न, परिताप, परिश्रम, विच्छेद से आगे अंग छेद एवं मृत्यु-दण्ड तक हुआ। आधुनिक शिक्षा ने मनुष्य की बुद्धि को प्रखर बना दिया। उसमें अपराध करने की कुशलता आ गई। अनुशासन, व्यक्ति और समाज में सहज फलित होना चाहिए था, वह नहीं हुआ, प्रत्युत दण्ड के नवीन प्रावधानों के विविध रूप सामने आने लगे। उससे व्यक्ति दण्डित होकर और अधिक अपराधी मनोवृत्ति का बनने लगा। शासन की अधिक कसावट से अपराध भले एक बार दबे-से लगते हैं, परन्तु अवसर आते ही वे एकदम उभर आते हैं। सत्ता और शासन, अनुशासन को नहीं ला सकते । अनुशासन व्यक्ति की ओर से व्यवस्था की स्वीकृति है। शासन सत्ता की अनुपूर्ति के लिए दिए हुए निर्देश हैं। अनुशासन तब ही सफल हो सकता है जब वह व्यक्ति को प्रबुद्ध करता है। प्रबुद्ध व्यक्तित्व ही अपने विवेक से सत्ता और शासन के भय के बिना भी अनुशासित रह सकता है। सत्ता और शासन में जीने वाला व्यक्ति यह सोच नहीं सकता कि व्यक्ति मशीन अथवा पशु नहीं है, उसे चाहे जैसे हांका जा सकता है। व्यक्ति स्वतंत्र चैतन्य पिण्ड है। उसमें चिन्तन, मनन और परिवर्तन करने की क्षमता होती है। सत्ता और शासन एकाकी होते हैं। वे दमन की भाषा को प्रयुक्त करते हैं उनका विश्वास बल में ही होता है। आज हजारों वर्षों से बल से अनुशासित तंत्र विद्रोह की भट्टी में जलकर राख होने की तैयारी में है। शासन व्यक्ति के लिए मध्यम मार्ग निर्मित करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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