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________________ ५२ प्रज्ञा की परिक्रमा वृत्ति का द्योतक है, कोई धार्मिक कृत्य नहीं है। जिह्वा लोलुपतावश हिंसा के विभिन्न प्रयोग होते आए हैं। किन्तु धर्म ही एक ऐसी विचार प्रक्रिया है, जिसने मनुष्य को प्रशिक्षित किया और मांसाहार के परिहार की दृष्टि दी। मांसाहार न करने से मनुष्य जाति भूखी मर जाएगी', ऐसा कुछ तार्किको का तर्क है। वे कहते हैं अन्न एवं शाक का उत्पादन इतना नहीं होता है कि समस्त मानव जाति उसे खाकर जीवन निर्वाह कर सके। मांस को आहार के रूप में प्रयोग कर ही इस समस्या को समाहित कर सकते हैं। मांसाहार प्राणी के बिना प्राप्त नहीं होता। उस प्राणी को पालने के लिए कितने शाक (घास) का उपयोग करना पड़ता है। तब कहीं वह पुष्ट बनता है। आर्थिक दृष्टि से भी पशुओं का मांस सस्ता नहीं पड़ता है। मूलतः जैन-धर्म की मांस परिहार की दष्टि करूणा और समता से जुड़ी हुई है। अहिंसा और करुणा के बिना मैत्री बन नहीं पाती। धर्मों ने प्राणियों के प्रति दया और करुणा का उपदेश दिया है। मांसाहार सभ्यता के आदि युग में मनुष्य ने स्वीकार किया। उस समय वह कच्चा मांस ही हिंसक प्राणियों की तरह खा जाया करता था। अग्नि आविष्कार के बाद मांस पकाकर खाने लगा। सभ्यता एवं विवेक के विकास के साथ व्यक्ति ने करुणा और दया का पाठ पढ़ा। सभी धर्मोपासकों ने मांसाहार के परित्याग की चर्चा की है। दया और करुणा वैयक्तिक विकास के अतिरिक्त सामाजिक सामंजस्य का आधार बनती है। उसके लिए अहिंसा और करुणा अनिवार्य है। मांस परिहार जैन धर्म की पहचान हो गई। दूसरे धर्म जिनके अनुयायी मांसाहार करते हैं, उनके पैगम्बरों, अवतारों और महापुरुषों ने भी मांसाहार को त्याज्य बताया है। विज्ञान के विकास एवं नवीन खोजों ने विश्व में मांसाहार के परित्याग एवं शाकाहार के प्रसार का वातावरण बनाया है। मांसाहार तामसिक, भारी, दुष्पाच्य एवं तनाव को बढ़ाने वाला है। शाकाहार सात्त्विक, हल्का, सुपाच्य एवं तनाव को मिटाने वाला है। शाकाहारी प्राणियों की लार क्षारीय होती है जिससे वे भोजन में निहित कार्बोहाइड्रेट ठीक से पचा सकें। मांसाहारी प्राणी की लार अम्लीय होती है जिससे वे मांस का सुचारु रूप से पाचन कर सकें। मनुष्य की छोटी-बड़ी आंतें मिलाकर अपनी ऊंचाई की चार गुना लम्बी हैं तो मांस-भोजी प्राणी की आंत उसकी ऊंचाई के बराबर लम्बी होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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