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________________ मांसाहार बनाम शाकाहार ___ मांसाहार को वर्जनीय क्यों माना गया है ? मांसाहार में क्या बुराई है? करोड़ों मनुष्य मांसाहारी हैं। मांसाहार न किया जाए तो भोजन के अभाव में जनता भूखी नहीं मर जाएगी ? पोषण-तत्त्व के अभाव में समाज रूग्ण और पीड़ित नहीं हो जाएगा ? ये तर्क मांसाहार के समर्थन में आते रहते ___ आहार जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। उसकी पूर्ति के बिना शरीर जीवित नहीं रह सकता। जिजीविषा के साथ भोजन जुड़ा हुआ है। भोजन की पूर्ति के लिए हिंसा अपरिहार्य है। मांसाहार वर्जन हिंसा के परिष्कार की प्रथम भूमिका है। प्रत्येक प्राणी जीवन का इच्छुक है। जीवन सबको प्रिय है, मरण कोई नहीं चाहता। मृत्यु सबके लिए पीड़ाप्रद है। मांसाहार के बिना भी जीवन चलाया जा सकता है। प्राणीवध के बिना भी अनेक प्राणी अपनी जीवन यात्रा संपन्न करते हैं। गाय, भैंस, बकरी घोड़ा, हिरण आदि अनेक प्राणी शाकाहार से अपना जीवन निर्वाह करते हैं। मनुष्य जब सामाजिक हुआ, उसने अपने विकास के मार्ग का निर्धारण किया। मांसाहार का वर्जन अहिंसा, करुणा की भावना को विकसित करने वाला है | मांस प्राणी के वध के बिना उपलब्ध नहीं होता। किसी प्राणी का वध हिंसा ही नहीं क्रूरता भी है। करुणा ओर अहिंसा की भावना ने ही मनुष्य को शाकाहार की प्रेरणा दी। करोड़ों व्यक्ति मांसाहार करते हैं, उसमें क्या बुराई है ? करोड़ों व्यक्तियों के मांसाहार करने से कोई मांसाहार सात्विक नहीं हो जाता। मनुष्य के शरीर की रचना मांसाहार करने वाले प्राणियों जैसी नहीं है। उसके दांत व नख हिंसा को प्रोत्साहित करने वाले नहीं है। हिंसा करने वाले प्राणियों के दांत एवं नख की रचना भिन्न प्रकार की होती है। मांसाहारी एवं शाकाहारी व्यक्तियों की आंतों व आमाशय की रचना में भी अन्तर रहता है। मांसाहार के पाचन के लिए पित्ताशय को पित्त अधिक श्रवित करना होता है। उनके पेन्क्रियाज की रचना शाकाहारियों के वनस्पत कुछ विशाल होती है। शारीरिक रचना की दृष्टि से ये सब भिन्नता इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य मांसाहारी प्राणी नहीं है। मांसाहार उसके लिए शारीरिक दृष्टि से भी अनुकूल नहीं हैं। मांसाहार करने वाले व्यक्ति संख्या की दृष्टि से भले करोंड़ों-अरबों हों, इससे मांस की महत्ता को दिग्दर्शित नहीं किया जा सकता। मांसाहार मनुष्य की स्वाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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