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________________ १२ मांसाहार बनाम शाकाहार "मुनि श्री ! आपने मेरे घर में मुसीबत पैदा कर दी। एक संभ्रान्त कुलीन महिला ने वन्दना करते हुए कहा। मैं थोड़ा चौंका और अपनी स्मृति पटल को कुरेदते हुए चिन्तन करने लगा-मैंने तो इसके परिवार के सदस्यों को कुछ भी नहीं कहा है। मेरी चिन्तित मुद्रा को देख, वह गंभीर स्वर में बोली-भूल गए आप, कल ही तो आपने मेरे पुत्र को रंगीन चित्र दिखाए थे। जिसमें मांसाहार के अनिष्ट परिणामों का विश्लेषण था। आपने वैज्ञानिक संदर्भो के अन्तर्गत आमिष-भोजन, शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से कितना घातक है, विस्तार से समझाया। उसने आमिष भोजन का परित्याग ही नहीं किया बल्कि आज वह दूसरों को प्रेरित कर रहा है। प्रातः मुझे भी उसने स्पष्ट कहा-मम्मी ! तुम और पापा अण्डे एवं आमिष भोजन भविष्य में करोगे तो मैं मुनिजी से शिकायत कर दूंगा। 'मैं सकपका गई, अण्डे उबालने की हिम्मत नहीं कर सकी। छोटे से बालक की एक दिवसीय संगत इतना असर दिखाएगी, मुझे विश्वास नहीं था। परम्परा से जैन धर्म के अनुगामी होते हुए इस तामसिक भोजन की और हम क्यों आकृष्ट हुए ? मन ग्लानि से भर गया। चिन्तनधारा शाकाहार एवं मांसाहार के गुण-दोष पर चलने लगी। बालक ने साहस कर संकल्प किया। मेरी मजबूरी है। मैं मांस का सेवन स्वयं कभी नहीं करूंगी; किन्तु अण्डे का परित्याग जब तक पतिदेव नहीं कर देते हैं मेरी मुक्ति उससे मुश्किल है। _ मैं उसकी मजबूरी को समझ रहा था। वहीं दूसरी और नई पीढ़ी में मांसाहार के प्रति रूझान के बारे में चिंतन कर रहा था। जैन धर्मावलम्बी शाकाहारी होते हैं, मांसाहार उनके लिए धार्मिक उसूलों से वर्जनीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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