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प्रज्ञा की परिक्रमा पथ पर द्रुतगति से बढ़ सके उसके लिए उसे स्वयं अपने प्रयोगों के परिणाम से कदम बढ़ाना होता है। बाहर से समान दिखाई देने वाली प्रवृत्ति भी साधक के अन्तरंग व्यक्तित्व के कारण भिन्न-भिन्न परिणाम लाने वाली होती है। उसका कारण साधक का अपना अन्तर संस्कार और व्यक्तित्व ही है। किसी व्यक्तित्व के निर्माण और परिष्कार में दूसरा तो केवल सुझाव अथवा अपना अनुभव ही प्रस्तुत कर सकता है, यह उसके अधिकार की सीमा है। दूसरे को बदलने और रूपांतरण की जिम्मेदारी स्वयं पर न ओढ़ना ही साधना की श्रेष्ठता है। व्यक्ति की यह जबरदस्त पीड़ा है कि वह दूसरों को बदलने की सोचता है, जो दुनिया की असंभव घटना है। वह न कभी हुई और न कभी होगी। अतः यहीं श्रेयस्कर पथ है कि व्यक्ति स्वयं को बदलने के लिए साधना का प्रयोग करे, दूसरों को बदलने के दुरूह झंझट में न उलझे।
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