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सुधार की आकांक्षा लोग हरिजनों के साथ मानवीय व्यवहार करने लगे। किन्तु उनकी धर्मपत्नी कस्तुरबा अपने पुराने विचारों पर सुदृढ़ थी। वह हरिजनों को अपने निकट फटकने तक नहीं देती थी। गांधीजी उसकी इस प्रवृत्ति से झुंझला उठते थे। वे कहते-सारी दुनिया को समझाना सरल हैं, किन्तु कस्तुरबा को समझाना महान् दुष्कर है। इतना सब होते हुए भी गांधीजी व्यक्ति की स्वतन्त्रता के पूरे हामी थे। बा पर अपने विचार बलात् थोपने की कोशिश नहीं की। न इनसे उनके पारस्परिक व्यवहार में अन्तर आया। मनुष्य चिंतनशील व्यक्तित्व का धनी है। उसकी अपनी एक विशेष क्षमता है कि वह चाहे तो ऊर्ध्वारोहण कर सकता हैं, चाहे तो अधोगमन कर सकता है, यह व्यक्ति की अपनी विलक्षणता है। दूसरा व्यक्ति उसके व्यक्तिगत निर्माण में हस्तक्षेप करें, यह कहां का न्याय है ? व्यक्ति जिस मार्ग को श्रेष्ठ समझ रहा है, उसके अनुसार स्वयं के आचरण की उसे सम्पूर्ण स्वतंत्रता है, किन्तु इस विचार के अनुसार सभी निर्मित हो, यह कैसी विडम्बना है ? साथ ही दूसरे व्यक्तित्व की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप भी है। किसी राष्ट्र के संचालन में अन्य राष्ट्र अपनी शक्ति और चिन्तन का योग उसकी सहमति के बिना करता है, तो वह उचित नहीं कहा जा सकता है। उसी प्रकार किसी के व्यक्तित्व निर्माण में यदि कोई किसी प्रकार का हस्तक्षेप करता है, यह कैसे स्वीकृत हो सकता है। हर व्यक्ति स्वतंत्र इकाई है। सबको अपने व्यक्तित्व के निर्माण का अधिकार है। साधना के क्षेत्र में भगवान महावीर ने प्रत्येक प्राणी को पूर्ण स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। स्वतंत्रता ही साधना की प्रथम और अन्तिम सीढ़ी है। महावीर ने साधना का उल्लेख करते हुए सबसे पहले इच्छाकार समाचारी का निरुपण किया। आचार्य भी शिष्य को सीधा आदेश नहीं देते। उसे साधना के लिए इच्छाकार समाचारी का निर्देश करते हैं। तुम्हारी इच्छा हो तो यह करो। साधना वैयक्तिक कार्य है। साधक उसे स्वयं इच्छा से कर सकता है, दूसरों के आरोपण अथवा दवाब से वह फलित नहीं होती।
साधना करने वाला कैसा है, वह कौन-सी प्रवृत्ति करता है, उसके आचरण की सीमाएं क्या हैं ? साधना के अनुभव से ही उसे अगला कदम उठाना चाहिए। साधना की प्रवृत्तियों के लिए मार्ग-दर्शक केवल मार्ग के अवरोधों से अवगत करा सकता है अथवा अपने अनुभव से वह साधक में आत्म-विश्वास उत्पन्न कर सकता है। बाकी समस्त प्रवृत्ति का आधार तो स्वयं ही है। साधक साधना
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