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प्रज्ञा की परिक्रमा है। भारत सरक्यूलर-स्टेट (सम्प्रदाय-निरपेक्ष) राज्य है अर्थात् भारत में किसी एक धर्म की राज्य स्तर पर कोई मान्यता नहीं है। भारत गणराज्य में सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार है वे किसी एक धर्म विशेष को विशेष स्थान नहीं देते हैं। संविधान में भारत गणराज्य को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया। संविधान इंलिश भाषा में था जिसका तात्पर्य स्पष्ट था, किन्तु हिन्दी में अनुवाद करते गड़बड़ा गया। सम्प्रदाय निरपेक्ष के बजाय धर्म निरपेक्ष हो गया। जिससे ये सारी समस्याएं जटिल रूप धारण कर सामने आई। शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का विकास
शिक्षा का मूल उद्देश्य है--व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक गुणों को विकसित करना।
शरीर और बुद्धि को प्रशिक्षित करने शिक्षा में सम्पूर्ण व्यवस्था है किन्तु मानसिक और भावनात्मक विकास की ओर ध्यान नहीं दिया गया। शरीर, मन, बुद्धि और भाव का असन्तुलन ही समस्याओं का जनक है। इस असन्तुलन का परिष्कार ही जीवन विज्ञान का उद्भव है। जीवन विज्ञान के संयोग से शिक्षा जगत् में संतुलन और परिष्कार आ सकता है जिससे व्यक्ति और समाज का समुचित विकास संभव है। शिक्षा की समस्या
शिक्षा व्यक्ति को अच्छे से अच्छा वैज्ञानिक, डाक्टर, इंजीनियर, वकील बना रहा है। उनकी योग्यता में किसी को संदेह नहीं। अच्छे से अच्छा डाक्टर अथवा वैज्ञानिक पद अथवा मन के अनुकूल यदि नहीं हुआ तो वह किस तरह आत्महत्या अथवा अन्य समस्याएं पैदा कर रहा है। यह किससे छुपा है निराश अथवा असहिष्णु बनकर स्वयं के साथ आत्मघाती कार्य कर बैठते हैं, या फिर हिंसा, तोड़-फोड़ और अनुशासनहीन बनकर समाज और राष्ट्र के लिए सिरदर्द का कार्य करते हैं। इन समस्याओं से प्रताड़ित होकर समाज और राष्ट्र ने समाधान के लिए शिक्षा के परिवर्तन की चर्चा की। अनेकानेक आयोग इसके लिए नियुक्त किये गये, किन्तु कुछ निष्कर्ष यथार्थ में उपलब्ध नहीं हुए क्योंकि समस्या के मूल को वे पकड़ नहीं पा रहे थे। जब तक समस्या के मूल को पकड़ा नहीं जाए केवल उसकी टहनी और डालियों को काटने
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