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________________ प्रज्ञा की परिक्रमा नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान से आगे समाधि में पहुंचते ही उनकी साधना पद्धति समाधि से पूर्व इन सात अंगों पर बल देती है। समाधि में भी जब निर्बीज समाधि प्रज्ञा को स्फुटित करती है। प्रेक्षा से प्रज्ञा का अवतरण प्रेक्षा साधना में भी प्रज्ञा की माया के लिए इस तरह से निश्चित अंगों की चर्चा नहीं की गई है फिर भी उनकी भी अपनी क्रमबद्धता अवश्य होती है। समाधि चैतन्य की वह अवस्था है न तो व्यक्ति समाधान को उपलब्ध होता है और न उसकी विषमता दूर होती है। प्रेक्षा-ध्यान की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है चैतन्य-केन्द्र प्रज्ञा जिससे प्रज्ञा की यात्रा की जा सकती है। ज्ञान की अभिव्यक्ति के दो साधन हैं-इन्द्रिय, चेतना और अतीन्द्रिय चेतना। इन्द्रिय चेतना स्थूल दृश्य जगत् को जानती है और अतीन्द्रिय चेतना सूक्ष्म सत्यों का साक्षात करती है। सूक्ष्म चेतना को अनावृत करने के लिए चैतन्य केन्द्रों पर प्रेक्षा का प्रकाश डालना होता है। ज्यों-ज्यों प्रेक्षा के द्वारा केन्द्रों पर एकाग्र और राग-द्वेष रहित उपयोग को स्पष्ट करते हैं तब प्रज्ञा का जागरण होने लगता है। प्रज्ञा जागरण के लिए ज्ञान-केन्द्र और शान्ति-केन्द्र पर ध्यान का उपयोग अपेक्षित रहता है। जब ज्ञान-केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित होता है, तब वहां स्पंदन, प्रकंपन, विचार प्रशान्त होकर निर्विचार स्थिति में प्रज्ञा का प्रादुर्भाव होने लगता है। प्रज्ञा के इस आलोक से न केवल व्यक्ति आलोकित होता है, उस ज्ञान से कण-कण आलोकित हो उठता है। प्रज्ञा की परिक्रमा के लिए प्रेक्षा के प्रयोगों को विधिवत् करना चाहिए। जिससे व्यक्ति प्रज्ञा को उपलब्ध होकर सत्य का साक्षात् कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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