________________
१७ भ्रष्टाचार का भूत
अच्छाई और बुराई का मूल स्रोत्र मानस है। उनका पोषण और शोषण वहीं से होता है। बहुधा हम सोचा करते हैं कि बुराई परिस्थितियों व उपकरणों से उत्पन्न होती है। इसलिए उनको मिटाने व बदलने का प्रयास भी होता है, किन्तु बदलती हुई परिस्थितियों से कुछ भिन्न समस्याएं सम्मुख आ जाती हैं, जब उन्हें मिटाने का प्रयत्न करते हैं, वे मिट ही नहीं पातीं, उससे पूर्व नवीन बुराइयां आ जाती हैं। भ्रष्टाचार की जड़ भी मानस में ही है। उसका एक रूप, एक कारण और एक प्रकार नहीं । असंख्य रूप, कारण और प्रकार हैं।
भ्रष्टाचार है, यह तो सभी अनुभव कर रहे हैं। इसकी चर्चा भी यत्र-तत्र सर्वत्र हो रही है। पर किसी भी बुराई का विनाश केवल चर्चा से ही नहीं होता जैसा कि सदाचार समिति दिल्ली के सेमिनार में पठित आचार्य श्री तुलसी के निबन्ध में बताया गया है। यह पहली भूल होगी यदि हम अवांछनीय समस्या की रट ही लगाते हैं किन्तु उसको सुलझाने का प्रयत्न न करें। केवल रट लगाने मात्र से समस्या का समाधान नहीं होता। इससे तो प्रत्युत समाज में बुराई के प्रति घृणा मिट जाती है, जिसका दुष्परिणाम अराजकता और राष्ट्र-विनाश के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ?
भ्रष्टाचार का विष आज राष्ट्र के प्रत्येक अवयव में व्याप्त हो चुका है। इसको मिटाए बिना राष्ट्र स्वस्थ नहीं रह सकता और न जिन्दा ही। एक मंत्री महोदय ने तो यहां तक कह दिया है कि भ्रष्टाचार को दो वर्ष में मिटा दूंगा या मैं शासन से हट जाऊंगा किन्तु लग ऐसा रहा है कि यह राक्षस अभी विकराल रूप लिए बढ़ता ही जा रहा है।
किसी भी बुराई को मिटाने के लिए यह आवश्यक है कि जनता में दृढ़तर संकल्प व साहस की ज्योति जगाई जाए। प्रत्येक व्यक्ति जगा और उसने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org