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________________ १४५ भ्रष्टाचार का भूत दृढ़ संकल्प के साथ भ्रष्टाचार का बहिष्कार किया तो वह दिन दूर नहीं होगा जब भ्रष्टाचार यहां से सदा के लिए पलायन कर जाए। संकल्प की शक्ति से आज कौन अपरिचित है ? जिस व्यक्ति ने कण-कण में चेतना, स्फुरणा और तेज को उद्दीप्त किया। उस लंगोटी वाले महात्मा की राष्ट्र को याद आए बिना कैसे रह सकती है, जिसने दासता की जंजीरों को तोड़ने के लिए संकल्प बल जगाया। हजारों नौजवानों ने साम्राज्यवादियों के उत्पीड़न को किस प्रकार हंसते-हंसते सहा। इन सब के पीछे संकल्प का तेज था, सामर्थ्य था और कुछ कर गुजरने की बलवती भावना थी। देखते-देखते सदियों की प्राचीन दासता सदा के लिए समाप्त हो गई। गांधीजी ने वह संकल्प सूत्र सत्ता के तख्त से नहीं अपितु कुटिया के कौने से दिया । आज भी ऐसे प्राणवान् व्यक्तित्व की आवश्यकता है जो राष्ट्र में नई जिन्दगी व ताजगी भर सके। सत्ता प्राप्त करने के प्रकार बदल गए हैं। आज सत्ता की शक्ति जनता के अधिकार में आई। इससे बने शासनाधिकारी क्या-क्या करते हैं, यह किसी से भी छुपा नहीं है। जब शासन-तंत्र ही स्वार्थों को पूर्ण करने में ही दौड़े तब जनता भी उस दौड़ में पीछे कैसे रहे ? फिर भी यह शुभ-सूचना ही माननी होगी कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने हेतु सत्ता की ओर से स्वर उभरा, किन्तु चिन्तकों को चिन्ता है कि कहीं यह स्वर सत्ता के भय या सत्ता के सरंक्षण के लिए तो नहीं आया है? भय से आए संकल्प में प्रलोभनों के सम्मुख टिके रहने की शक्ति कैसे रह सकेगी। साहस न होने का तात्पर्य है पथ भ्रष्ट होना और स्वयं को नष्ट करना। इसमें केवल सत्ता भी ही सारी त्रुटियां नहीं हैं, व्यापारी व धनिक वर्ग भी कम दोषी नहीं हैं। जो अपने स्वार्थों को तथा अर्थ बटोरने के लिए भ्रष्ट उपायों का प्रयोग करता है। केवल सत्ता व व्यापारी वर्ग ही भ्रष्टाचार से ग्रसित नहीं हैं, साधारण जन भी अपने कर्तव्य पालन में जागरूक नहीं है। यदि जनता जागरूक हो तो भ्रष्टाचार की जड़े हिलते क्या देर लग सकती है, परन्तु उसे जागृत होने से स्वार्थी तत्त्वों की दाल नहीं गलती, अतः वे ऐसा कब देख सकते हैं, जिससे संकल्प-स्वर प्रबल हो। संकल्प स्वर को प्रबलतम करने के लिए जनता के मानसिक स्तर को बदलने की आवश्यकता है। मानसिक स्तर बदले, उसके लिए हमें प्रतिष्ठापित्त मूल्यांकन पर भी पुनः चिन्तन करना होगा। राष्ट्र में आज प्रतिष्ठा, पूजा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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