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________________ १४८ प्रज्ञा की परिक्रमा है। साक्षी, तनाव-मुक्ति का विश्लेषण, द्रष्टाभाव, वीतरागता, समता, स्वरूप में अवस्थिति, केवल ज्ञान का अनुभव, आत्म रमण आदि अत्यन्त प्रिय और लुभावने शब्द हैं। अपनी महत्ता की छाप श्रोताओं पर बनी रहे, ऐसे उपदेशकों के लिए तो यह शब्द स्वर्णसूत्र है। किन्तु प्रयोग के रूप में गुजरने वाले साधक के क्षण-प्रतिक्षण उनकी व्यर्थता का अनुभव स्वतः होने लगता है। ये शब्द यथार्थ होते हुए भी उपदेश के धरातल पर उतरकर ज्ञानाभिमान का सृजन करते हैं। उससे श्रोता साक्षी, द्रष्टाभाव का अभिनय करने लगता है। साक्षी अथवा द्रष्टा भाव को बाहर से नहीं उतारा जा सकता। वह तो कषाय की मन्दता और चैतन्य की सजगता का परिणाम है। कषाय विभिन्न रूपों में किस तरह अपना जाल फैलाती है जिससे साधक अनासक्ति की चर्चा करता हुआ भी आसक्ति में फंस जाता है। मनोविज्ञान और तनाव __ आधुनिक शताब्दी में मनोविज्ञान की स्थापनाओं ने प्रबुद्ध वर्ग को प्रभावित किया है। फ्रायड, जुंग तथा उसकी परम्परा को मनोवैज्ञानिकों ने मनुष्य की प्रवृत्तियों एवं मानसिक स्थितियों का अवलोकन कर जो निष्कर्ष निकाले हैं वे यथार्थ होते हुए भी केवल एक स्थिति का ही स्पष्टीकरण करते हैं। मस्तिष्क अपनी पद्धति से कार्य करता है। लेकिन अभी तक मस्तिष्क को संचालित करने वाली उस परम शक्ति का मनोवैज्ञानिकों को पूरा पता कहां है? ग्रन्थियों के अध्ययन से उनकी क्षमताओं और कार्य का कुछ-कुछ पता अवश्य लगा है किन्तु अभी तक उनका पूरा अध्ययन अवशेष है। ___ मनोविद् मानते हैं कि तनाव केवल शारीरिक क्रिया ही नहीं होती यद्यपि तनाव से स्नायुओं की क्रिया में अवश्य अन्तर आता है। उनके समीकरण से व्यक्ति विश्राम को उपलब्ध होता है। तनाव मानसिक स्थिति है। व्यक्ति उसे मानस के स्तर पर ही अनुभव करता है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति शरीर तक उतरती है। तनाव में मानस और शरीर दोनों की साझेदारी है। विश्लेषण की प्रक्रिया से व्यक्ति तनाव से मुक्त होता है। वहां शरीरगत स्नायुओं में भी परिवर्तन आता है। तनाव मुक्ति और अध्यात्म तनाव मुक्ति की प्रक्रिया में औषध अथवा आत्म विश्लेषण की प्रक्रिया का निर्देशन मिलता है। वह शरीर और मानस की ग्रन्थियों को खोलने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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