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प्रज्ञा की परिक्रमा नहीं रह सकता। अन्तःस्फूर्त कर्म ही क्रिया है। अक्सर क्रिया की प्रतिक्रिया ही कार्य में अभिव्यक्त होती है। प्रतिक्रिया विरति के लिए मैत्री परम आवश्यक है। मैत्री के विकास में ही प्रतिक्रिया विरति हो सकती है। हिंसा की प्रतिक्रिया में भोजन और भाषण की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भोजन और भाषण का असंयम क्रूरता प्रतिक्रिया और मूढ़ता को उत्पन्न करता है।
भावनाओं की कर्मभूमि-शरीर
मूढ़ता से शस्त्र, युद्ध और विनाश की लीला खेली जाती है। प्रतिक्रिया, क्रूरता का चक्का अपना कार्य करने लगता है। इस चक्र का साक्षात किए बिना तोड़ नहीं सकतें। शरीर मनुज के पास एक ऐसा महत्त्वपूर्ण संस्थान हैं, जिसमें हजारों कर्म हो रहे हैं दर्शन, श्रवण और इन्द्रियों की क्रियाएं श्वास, पाचन, सर्जन-विसर्जन आदि स्वतः संचालित क्रियाएं भी हो रही हैं। इनसे भावना, कर्म शरीर कैसे प्रभावित हो रहे हैं, यह भी एक रहस्य है।
मानव शरीर पर शरीर शास्त्रियों ने महत्त्वपूर्ण खोजें की हैं। आज मनुष्य के एक-एक अवयव का इस प्रकार वैज्ञानिक विश्लेषण उपलब्ध हैं, जिससे हम जान सकते हैं किस अवयव पर काम क्रोध आदि की वृत्ति उभरती है। कहां पर इनका ज्ञान होता है और किस प्रकार इनसे मुक्त हुआ जा सकता
शरीर केवल अस्थि, मांस का ढांचा ही नहीं है, साधना की दृष्टि से इसका बड़ा महत्त्व हैं। चैतन्य की छिपी हुई शक्ति इसके माध्यम से ही अभिव्यक्त होती है। शरीर को केवल इच्छा और कामना की संपूर्ति का माध्यम मानना मूढ़ता के अतिरिक्त कुछ नहीं है। विश्व के रहस्यों का केन्द्र-शरीर
शरीर विश्व के समस्त रहस्यों को पिण्डीभूत किए हुए है। इन रहस्यों का पता बहुत कम लोगों को है। जिनको इनके रहस्यों का ज्ञान है, वे ही नर से नारायण की, आत्मा से परमात्मा की यात्रा कर सकते हैं। आज भी साधक व्यक्ति से अतिरिक्त विशिष्टता लिए हुए हैं। शिक्षा के विकास से मनुष्य की प्रवृत्तियां व्यवस्थित बनी हैं। इस व्यवस्था का लाभ आने वाली पीढ़ी को मिलता है। परमाणु की ऊर्जा का जब तक वैज्ञानिकों को पता नहीं था, तब
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