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________________ स्वयं से पर को देखें ७१ की जा सकती है ? वह भी कोई करने की क्रिया है अन्तर् में निर्मलता से स्फूर्त होने वाली घटना है। मैत्री के लिए क्यों कहा जाता है। वैर के लिए कोई उपदेश नहीं देता फिर भी वह हर क्षण स्फूर्त होता रहता है। वह परिचित और अपरिचित का कोई अन्तर् नहीं करता। सब जगह समान रूप से उभरकर अभिव्यक्त होता है। कषाय की कलुषित वृत्तियों की गांठें ऐसी परिपक्व होती जाती हैं सुलझने का नाम ही नहीं लेती। भोजन खाने वाली तुच्छ वस्तु के लिए व्यक्ति पशु की तरह कुपित हो जाता है, उसका चिर पोशित पशुत्व जागकर बाहर आ जाता है। वह सोचता है कि मुझे मिताहारी रहना चाहिए। उसकी चर्चा का प्रमुख विषय रहेगा मिताहार और खाएगा वह ढूंस-ठूस कर । जब कभी सामूहिक भोज व्यवस्था में उसे पता लग जाए कि किसी विशिष्ट पदार्थ का भोजन में अभाव हो गया है तब तो उस पदार्थ के सिवाय अन्य वस्तुओं को वह खाएगा ही नहीं। उस पदार्थ की उसे उपलब्धि न हो तो वह चर्चा, निंदा ओर गाली-गलौच तक की स्थिति में आ जाता है फिर प्रतिक्रिया, हिंसा, प्रतिहिंसा का रूप धारण हो जाता है। मौन ओर मितभाषण में उसे रस ही नहीं आ रहा है। जैसा बातों में रस आता है वैसा रस दुनिया के किसी पदार्थ में नहीं है। इसलिए वह मौन को छोड़कर वाचालता को स्वीकार करता है, क्योंकि उसमें रस है लगाव है। इसलिए आध्यात्मिक रस का परित्याग कर बतरस में ही लगा रहता है। सूचना और संकेतों पर जब ध्यान जाता है तब क्षणिक वैराग्य अभिव्यक्त होता है। वह बुद्धि के स्तर पर चलता है किन्तु अन्तरंग जीवन में कुछ भी घटित नहीं होता क्योंकि उसे जो कुछ उपलब्ध है वह शब्द-जंजाल ही है। शब्द की रोटी से क्या किसी की क्षुधा शान्त होती है ? जब तक चेतना के स्तर पर अध्यात्म प्रस्फुटित नहीं होता। व्यक्ति केवल काल्पनिक ख्यालों से ही जीता रहता है। अध्यात्म का जागरण मूर्छा टूटने से ही होता है। मूर्छा तोड़ने की प्रक्रिया का ज्ञान चेतना के अनावरण से होता है। चेतना के अनावरण की प्रक्रिया ही साधन है, ध्यान है। चित्त की वृत्तियों का निरोध है। चित्त वृत्तियों के निरोध अथवा एकाग्रता के लिए प्रयोग एवं अभ्यास किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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