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प्रज्ञा की परिक्रमा
व्यवहार की दूरी व्यक्ति को इस तरह छलती है कि व्यक्ति ठगा-सा रह जाता है।
संकल्प को प्रतिदिन दुहराता है, लेकिन व्यवहार उसके विपरीत ऐसे चलता है जैसे नदी में भंवर । बेचारा इस भंवर में ऐसे फंसता है कि भूलकर भी दुबारा संकल्प करने का साहस ही नहीं करता । भूलकर संकल्प कर लेता है, तो उसे तोड़, हीन भावना से ग्रसित हो जाता है। संकल्प न करने का संकल्प भी दुर्बल चित्त नहीं दुहरा पाता ।
उपसंपदा के सूत्रों को लेकर जब वह व्यवहार में उतरता हे तब देखता है भावक्रिया कह रही है वर्तमान में जीएं। जो करें, जानते हुए करें, ध्येय के प्रति सतत अप्रमत्त रहें, किन्तु चित्त अतीत की स्मृतियों में खोया क्लान्त हो रहा है। उसने मुझे कैसे यह कहा, उसने ऐसा क्यों किया ? एक साथ ही भविष्य की कल्पनाओं में खोया नाना स्वप्न संजोता है कि ऐसा हो जाए तो अच्छा, वैसा हो जाए तो अच्छा। वर्तमान में चित्त रहना ही नहीं चाहता । वर्तमान को अतीत और भविष्य की उघेड़बुन में खो देता है। क्रिया पर ध्यान गया तो लगा जो कुछ घटित हो रहा है, वह सब बिना कुछ सोचे समझे होते जा रहा है। जानते हुए करने की बात हवा में उड़ गई। फिर ध्येय के प्रति चित्त को समर्पित रखने का चिन्तन किया तो महान् आश्चार्य ! चित्त को मालूम ही नहीं निर्मलता भी उसका ध्येय है। जब चित्त को ज्ञात ही नहीं अपने ध्येय का तब भला कैसे वह निर्मलता की ओर गति करेगा । ध्येय तो बनाया है निर्मलता का और चित्त प्रतिक्षण बह रहा है। मलिनता की ओर । वह भी बिना किसी कारण के मानो उसका स्वभाव ही मलिनता है ।
में
उपसंदा के दूसरे सूत्र की ओर ध्यान गया तब लगा कि कहीं सूत्र कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गई है। क्रिया करें, प्रतिक्रिया न करें परन्तु जो कुछ घटित हो रहा था वह था प्रतिक्रिया करें क्रिया न करें। किसी भी छोटी से छोटी क्रिया की प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया ही हो रही थी। जिन अन्त हीन प्रतिक्रियाओं की प्रतिक्रियाओं से चित्त गुजर रहा था तो विवेक का विश्वास ही नहीं हो रहा था यह भी कोई सूत्र है क्रिया करें, प्रतिक्रिया न करें।
मैत्री की महिमा मन को मधुर लगती है किन्तु वृत्तियों में कुछ और ही उभरकर आ रहा था। जिससे नाना प्रश्न स्फूर्त हो रहे थे। क्या मैत्री भी
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