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________________ स्वयं से पर को देखो प्रेक्षा का सूत्र है 'आत्मा से आत्मा को देखें ।' आत्मा से आत्मा को देखें? क्या देखें ? कैसे देखें ? स्वयं से स्वयं को देखें, कैसे देखें ? बड़ा विचित्र लगता है। व्यवहार के परे के सूत्र दिए गए हैं। बुद्धि की समझ में भी नहीं आ रहा है कि आत्मा से देखने की क्रिया कैसे घटित होगी ? आत्मा जब अरूपी है तो अरूप से अरुप को कैसे देखा जा सकेगा ? द्रष्टा से दृश्य को देखा जा सकता है। स्व से पर को देखा जा सकता है, पदार्थ से पदार्थ को देखा जा सकता है। रूप से रूप को देखा जा सकता है। जो सहज है, प्रतिदिन, प्रतिक्षण व्यक्ति उस क्रिया को संपन्न कर रहा है। तब भला वह विपरीत क्रिया को कैसे करेगा ? किसी महान् पुरुष के कहने से कुछ कर भी लेगा तो उसका परिणाम क्या आएगा? दर्पण में आकाश की प्रतिछाया लेने से क्या उपलब्धि होगी? उसमें व्यक्ति को कोई रस भी नहीं 'स्वयं से स्वयं को देखो' हजारों-हजारों वर्ष व्यतीत हो गए इस सूत्र को श्रवण करते। मानव समाज आज भी वहीं खड़ा है परागमुखता का सूत्र लिए। __ व्यक्ति को पर-दर्शन में जो मजा आता है वह स्व-दर्शन में कहां ? व्यक्ति को पर-चर्चा में रस आता है वह स्व-चिंतन में कहां ? व्यक्ति की रचना में यह तथ्य कूट-कूट कर भरा है कि वह पर-दर्शन, पर-चर्चा, पर-चिन्तन ही ज्यादा करता रहता है। प्रेक्षा शिविर में जब ध्यान-दीक्षा के समय संकल्प सूत्रों को दोहराया जाता है 'अब्भुट्टिओमि आराहणाए' मैं प्रेक्षा-ध्यान साधना की उपसंपदा स्वीकार करता हूं। 'मग्गं उवसंपज्जामि' में अन्तर-दर्शन की उपसंपदा स्वीकार करता हूं। व्यक्ति की आकांक्षा एक दिशा में प्रवृत्त होती है तो उसका संकल्प और व्यवहार दूसरी दिशा की ओर गतिशील बना रहता है। आकांक्षा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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