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________________ ६८ प्रज्ञा की परिक्रमा स्वयं पर न लेकर दूसरों पर आरोपित कर देते हैं। यह आरोप यथार्थ नहीं है। बाधा, परिस्थितियां अन्तर शक्ति के समाने इतनी महत्वपूर्ण नहीं है। बाधाओं का कुछ प्रभाव होता हैं, किन्तु सर्वथा यह मान बैठना कि परिस्थितियां ही ऐसी थीं, यह और निराशा को उत्पन्न करने वाला है। जब अज्ञान के वशीभूत व्यक्ति का दृष्टिकोण मिथ्या हो जाता है तब वह सच्चाई की यात्रा कैसे करेगा! प्रसन्नता का संपन्नता से कोई गठबन्धन नहीं है। प्रसन्नता का स्वयं अपना अस्तित्व है। वह किसी के होने और न होने से सम्बन्धित नहीं है। प्रसन्नता तो पदार्थ सापेक्ष भी नहीं है वह प्रमुदित भाव से विस्फुटित होने वाला क्षण है। प्रमोद भाव से प्रसन्नता को प्रगट होने का अवसर मिलता है। पूर्ण प्रसन्नता का अवतरण चित्त की निर्मलता, कषाय की उपशान्ति और राग-द्वेष के विलय से ही हो सकती है। प्रसन्नता प्राप्ति के लिए किसी विधि ओर व्यवस्था की अपेक्षा नहीं होती। उसे विधि और अविधि से नहीं पाया जा सकता। यह विधि अविधि के पार का क्षण है। प्रेक्षा स्व का निरीक्षण है। प्रेक्षा आत्मा का अवलोकन है। प्रेक्षा जागरूकता है। प्रेक्षा राग-द्वेष रहित क्षण का अनुभव है। प्रेक्षा निर्मल चेतना की किरण है। प्रेक्षा केवल ज्ञान है, केवल दर्शन है। प्रेक्षा अनावृत चैतन्य है। प्रेक्षा साधन हैं। साध्य है। प्रेक्षा प्रसन्नता है, पवित्रता है। ०००० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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