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स्वास्थ्य, प्रसन्नता और प्रेक्षा स्वास्थ्य नहीं हो सकता। स्वास्थ्य स्वयं की उपस्थिति और अभिव्यक्ति है। वह किसी अभाव की स्थिति नहीं है।
स्वास्थ्य का भाव (अवस्था) स्व-स्थ अर्थात् स्वयं में ठहरना स्वास्थ्य है। 'स्वस्मिन् तिष्ठति इति स्वस्थः, जो अपने आप में ठहरता है, अपने स्वरूप में ठहरता है वह स्वस्थ है। स्वस्थ व्यक्ति ही आनंदित रह सकता है। आनंदित रहने वाला ही स्वस्थ हो सकता है। आनंद ही जीवन की आकांक्षा है, अभीप्सा है और ध्येय है।
स्वास्थ्य केवल शरीर तक ही सीमित नहीं है। स्वास्थ्य जीवन का सर्वांगीण तत्त्व है जिसे उपलब्ध हुए बिना साध्य को उपलब्ध नहीं हो सकतें। शारीरिक स्वास्थ्य वह साधन है जिसकी सीढ़ी पर चढ़कर ही मानसिक, आध्यात्मिक स्वास्थ्य को उपलब्ध किया जा सकता है।
शारीरिक स्वास्थ्य स्थूल तत्त्व है, किन्तु उसके बिना मानसिक स्वास्थ्य कैसे पाया जा सकता है। मानसिक स्वास्थ्य के अभाव में अध्यात्म का अंकुर कैसे प्रस्फुटित हो सकता है। शरीर मन एवं अध्यात्म तीनों के समन्वय से ही एक आदर्श व्यक्तित्व का प्रगटीकरण होता है। द्वेष, कामेच्छा, विषाद, निराशा केवल मानसिक कठिनाई नहीं है, स्नायु दुर्बलता से भी ये हो सकती हैं। स्नायु दौर्बल्य से ग्रसित व्यक्ति भी इन कठिनाइयों से गुजरता है। इन सबसे मुक्त होने का सरल मार्ग प्रसन्नता है।
प्रसन्नता कोई ऐसी स्थिति नहीं है जो औषधि से प्राप्त की जा सके। प्रसन्नता शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का पुष्प है। प्रसन्नता को प्राप्त करने के लिए शरीर के स्वास्थ्य पर ध्यान देना होता है। शरीर की रुग्णता में प्रसन्नता प्रस्फुटित नहीं हो सकती। प्रसन्नता प्रयास से भी प्रकट नहीं हो सकती। वह अन्तर् स्वास्थ्य से विकसित होने वाली सुगन्ध है।
प्रेक्षा चैतन्य की वह शक्तिशाली किरण है जिससे मूर्छा से आया आवरण तत्क्षण क्षीण हो जाता है। प्रेक्षा वह पवन है जिससे नीलगगन में मंडराये बादल एक साथ तिरोहित हो जाते हैं। प्रेक्षा वह तीसरा नेत्र है जिससे विकृतियां विलीन हो जाती हैं। केवल समता ही समता शेष रहती है। समता की कोई सीमा नहीं होती। वह असीम है, उसमें जीने वाला भी असीम हो जाता है।
प्रसन्नता को प्रगट होने के लिए जो बाधाएं हैं, उन्हें हटाना आवश्यक है। प्रसन्नता की बाधा बाहर नहीं, भीतर है। अक्सर किसी कठिनाई का कारण
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