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प्रज्ञा की परिक्रमा विशुद्ध क्षणों को निरन्तर बनाए रखना ही साधना है, सिद्धि है, जागरूकता है। जागरूक-व्यक्ति, पर को नहीं स्वयं को देखता है मूर्छित-व्यक्ति पर-प्रेक्षा करता है स्वयं से पर का निरीक्षण । उससे उपलब्ध होता है कषाय चतुष्क, जिसका परिणाम होता है अशान्ति।
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