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________________ ११ अनुत्तरित प्रश्न जीवन क्या है ? असंख्य समाधान के बावजूद यह अनुत्तरित प्रश्न है। मानस में जब इस प्रश्न का उद्भाव होता है समाधान के बजाय अनेकानेक प्रश्न उभरने लगते हैं। जीवन सब जी रहे हैं-सुखद अथवा दुःखद, प्रिय या अप्रिय, निराश अथवा आशा, स्वप्न संजोकर अथवा खोकर, लाभ अथवा अलाभ, मान अथवा अपमान के वशीभूत हो या यों कहें कि मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जीवन है, इसलिए जीते हैं अथवा जीते हैं इसलिए जीवन है। कितनी बार आत्महत्या से गुजर कर इस जीवन्त लाश को ढोए जा रहे हैं। काश! पता होता हम क्यों जीलाए जा रहे हैं। मरकर भी कौन सा अमृत पीकर लौट आते हैं। जीते हैं क्योंकि जीवन है। मृत्यु इसलिए इन्कार कर देती हैं कि हम अमृत पुत्र हैं। पता नहीं अमरत्व हमारा स्वरूप है या मृत्यु, मर-मर कर भी अमरता की ओर यह रथ क्यों गतिशील हो रहा है ? जी-जी कर यह जीवन क्यों मृत्यु की ओर सरकता जा रहा है ? मृत्यु सत्य है अथवा जीवन। जीवन सत्य है या मृत्यु। जीवन ठहरा हुआ अस्तित्व ___ जीवन और मृत्यु के छोर को खोजने की कोशिश करते हैं, तब एक अजीब तस्वीर नजर आती है, जहां न मृत्यु है न जीवन । ठहरा हुआ अस्तित्व है जिसे कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जो ठहरा हुआ भी परिणमनशील है, वहां भी घटित हो रहा है। सम्पूर्ण लोकालोक का अवतरण, प्रतिबिम्ब । पता नहीं उस अस्तित्व की परिणति होती है या लोकालोक का परिणमन हो रहा है। परिणति परिणति है उससे चैतन्य पर होने वाला प्रकटीकरण मात्र प्रतिबिम्ब है, ज्ञानात्मक उपयोग है। उपयोग विशुद्ध स्थिति है। उससे पदार्थ आलोकित होता है। इसे अवलोकन, ज्ञान, उपयोग, अस्तित्व कुछ भी कह सकते हैं। उसमें राग-द्वेष अथवा प्रियता-अप्रियता का प्रतिनिधित्व नहीं है, इसलिए बन्धन का अनुबन्ध नहीं होता। जहां ज्ञान और उपयोग में प्रियता-अप्रियता का भाव जुड़ता है वह राग-द्वेष, मोहात्मक स्थिति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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