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________________ अनुत्तरित प्रश्न राग-द्वेषात्मक स्थिति बन्धन का नया अनुबन्ध करने लगती है। अनुबन्ध ही सृष्टि का संचालन करता है। अनुबन्ध की सृष्टि के मूल, प्रियता-अप्रियता के भावों का उच्छेद करने वाला प्रेक्षा-ध्यान ही है। प्रेक्षा, प्रियता-अप्रियता के चक्रव्यूह को छिन्न कर जागरूकता का धर्म चक्र प्रवर्तित करना है। जागरूकता ही धर्म है, जागरूकता ही ध्यान है। जागरूकता ही जीवन है। जागरूकता ही शक्ति का संचार करती है। जागरूकता ही आनन्द है। जागरूकता ही ज्ञान है। जागरूकता ही अध्यात्म का ध्रुव है। अजागरूकता मूर्छा है, प्रमाद है, क्लेश है, दुःख है, अविद्या है। इस अविद्या से मुक्त होने का मार्ग ही साधना और सिद्धि है। उसे मोक्ष मार्ग या और किसी नाम से संबोधित किया जा सकता है। जीवन की प्रथम आवश्यकता भोजन जीवन की मुक्ति है या नहीं इसे स्वीकार भी नहीं कर सकते तो इन्कार भी कैसे करें? स्वीकृति के लिए अनुभूति चाहिए। जिसका अनुभव नहीं, उसको कैसे स्वीकृत-अस्वीकृत करें ? स्वीकृत किया जा सकता है तो वह मात्र शरीर जो हमें उपलब्ध है। श्वास है जो निरन्तर आता-जाता है। उसके बिना एक क्षण भी रहा नहीं जाता। वह कभी कारणवश कुछ क्षण रुकता है तो लगता है अब जीवित नहीं रह सकते। जिजीविषा इतनी प्रबल होती है कि हर तरह से श्वास-प्रश्वास के लिए शरीर को सक्रिय होना पड़ता है। सक्रियता से शरीर में जो क्षीणता आती है, टूट-फूट होती है उसकी पूर्ति आहार (भोजन) से होती है। आहार जीवन की प्रथम आवश्यकता है। उसके बिना शरीर टिक नहीं सकता। शरीर आहार से संपोषित-संवर्धित होता है। जगत् के प्रत्येक प्राणी की प्रवृत्ति का आधार आहार है। आहार की खोज ही उसे इस छोर से उस छोर तक यात्रा करवाती है। आहार को सुरक्षित रूप में कर सकें, इसमें किसी प्रकार का व्यवधान और बाधा न आये, यह भय ही उसे भयभीत बनाए रखता है। भय के दो कारण है-आहार में बाधा और शरीर की असुरक्षा। शरीर के विकास और शक्ति के उत्पादन में आहार की महती आवश्यकता हैं। जीवन का अस्तित्व भी भोजन से जुड़ा हुआ है। भोजन नहीं तो जीवन भी नहीं। कुछ दिन के पश्चात् शरीर क्षीण होकर नष्ट हो जाता है। भोजन प्राणी की ऐसी प्रगाढ़तम वृत्ति है कि वह उसके लिए सब कुछ करने को तैयार है। भोजन की इस प्रगाढ़तम इच्छा को भगवान् महावीर आहारसंज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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