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प्रज्ञा की परिक्रमा कहते हैं। आहारसंज्ञा मौलिक अन्तरवृत्ति है। संज्ञा का तात्पर्य है धनीभूत केन्द्रीय-वृत्ति वह केवल मानसिक-शारीरिक नहीं है। वह उससे गहन भावनात्मक और चैतसिक है। भोजन केवल शरीर से ही जुड़ा हुआ नहीं है। मन, भाव भी उससे संलग्न है यद्यपि मन के भाव का क्षेत्र स्पष्ट रूप से अलग है। किन्तु अलग होते हुए भी इतना संयुक्त है उसको इन्कार नहीं कर सकते। मन, भाव और चित्त भी सूक्ष्मता से उससे प्रभावित होता है। जब शरीर को भोजन प्रभावित करता है तो मन और भाव भी उससे कैसे बच सकते हैं ? तनाव का बीज-भय संज्ञा
स्मृति, चिन्तन और कल्पना के माध्यम से मन भावों को प्रभावित करता है। प्रभाव, क्षेत्र, इन्द्रिय और मन के आयामों से जुड़ा हुआ है। इन्द्रियां और मन प्राणी के विकासशील चित्त के प्रतीक हैं। इन्द्रियों के माध्यम से वह विभिन्न कार्य संपादित करता है। मन के द्वारा व्यक्ति चिन्तन, मनन आदि कर ज्ञान को विकसित करता है। ज्ञान और विज्ञान के विकास में इन्द्रियां और मन में विकसित करता है। ज्ञान और विज्ञान के विकास में इन्द्रियां और मन ही कार्यरत है। इन्द्रियां और मन चेतना के विकास स्तर हैं। विकास के साथ मन का दूसरा पक्ष जिससे वह भय, आवेग, काम, क्लेश आदि विभिन्न रागात्मक प्रवृत्तियों में संलग्न होता है। उसका ही परिणाम है कि व्यक्ति में भय की संज्ञा ने जबरदस्त अपना अड्डा जमा रखा है। भय की स्थिति ही आहार की तरह मौलिक समस्या है। आहार (भोजन) मुख्य रूप से शरीर को प्रभावित करता है। भय की भावना, मन, शरीर और भावना-तंत्र को प्रभावित करता है। सबसे बड़ा भय है कि कहीं शरीर विलय (नष्ट) न हो जाएं। उसको हर कीमत पर बचाने की कोशिश करता है, किन्तु बचा नहीं पाता। फिर भी भय की प्रगाढ़ता अणु-अणु में परिव्याप्त रहती है। भय को पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय विभिन्न क्षेत्रों से ग्रहण किया जाता है। भय से भय बढ़ता है। सुरक्षा के समस्त प्रकार निर्भयता के लिये किये जाते हैं। किन्तु भय प्रत्युत बढ़ता है। बढ़ा हुआ भय तनाव पैदा करता है। तनाव से शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रोगों से ग्रसित हो जाता है। तनाव से मुक्ति का मार्ग है-कायोत्सर्ग।
भय निरसन करने के दो उपाय हैं-प्रेक्षा से भय का साक्षात्कार और अभय की अनुप्रेक्षा।
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