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________________ ७६ प्रज्ञा की परिक्रमा जगत् आज राजनीति की क्रीड़ा स्थली बन रहा है। राजनीतिज्ञ समस्या के समाधान की बजाय अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने की दृष्टि अधिक रखता है। उसको शिक्षा, शान्ति और व्यवस्था से इतना मतबल नहीं। उसे तो अपनी कुर्सी से मतलब है लेकिन कुर्सी और सत्ता पर टिके हुए लोग इस बात को कैसे विस्मृत कर देते हैं कि व्यक्ति ही जब स्वस्थ नहीं होगा तो सत्ता और की कैसे स्वस्थ रह पाएगी। व्यक्ति की रुग्णता के साथ समाज और राष्ट्र जुड़ा हुआ है । राष्ट्र से विश्व जुड़ा हुआ है। पूरा ब्रह्माण्ड एक-दूसरे से संबंधित है एक की रुग्णता सम्पूर्ण जगत् को रुग्ण बना सकती है इसलिए व्यक्ति को स्वस्थ और चरित्रनिष्ठ बनाना अत्यन्त अपेक्षित है। जीवन-विज्ञान का फलित चरित्र को लाने के लिए शिक्षा में जीवन-विज्ञान अनिवार्य है। जीवन-विज्ञान ऐसी शाखा है जिसके द्वारा व्यक्ति को जीने की कला का प्रशिक्षण दिया जाता है। जीवन-विज्ञान क्या ? जीवन कैसे स्वस्थ, शांत और आनन्दपूर्वक जीया जा सकता है ? जीवन-विज्ञान ने शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए आसन-प्राणायाम की व्यवस्था दी। वहां सन्तुलित भोजन का भी चिन्तन किया गया है। सन्तुलित भोजन के साथ मानसिक तैयारी भी अपेक्षित है शरीर स्थूल है, सन्तुलित भोजन और अनुकूल श्रम मिलने से वह व्यवस्थित होने लगता है, किन्तु बुद्धि और मन सूक्ष्म है। बुद्धि और मन को कायोत्सर्ग और ध्यान द्वारा सन्तुलित बनाकर एक नवीन व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है। शरीर, बुद्धि, मन से भी नाजुक प्रश्न भावना के परिष्कार का है। भावना में दो और से कार्य करना होता है। एक और वह लेक्ष्या और कर्म संस्थानों के माध्यम से चेतना से संबंधित है दूसरी ओर ग्रंथियों के स्रावों से जुड़कर शरीर में नव सृजन के द्वार उद्घाटित करती हैं। इस प्रकार शरीर को असन्तुलित रखकर कर्म संस्थान और चेतना को अप्रभावित रखना अत्यन्त दुरूह है लेकिन जीवन-विज्ञान की प्रक्रियाओं से यह सुलभ है । जीवन-विज्ञान की नैतिकता धर्म और अध्यात्म की दृष्टि से देखना उसके साथ न्याय नहीं होगा। जीवन-विज्ञान इस घिसे-पिटे प्राचीन शब्दों से दूर हटकर स्वस्थ जीवन जीने की विद्या का स्वतंत्र रूप से प्रवर्तन है। जीवन-विज्ञान विश्व-विद्यालय में एक स्वतंत्र विद्या के रूप में विकसित होकर शिक्षा-जगत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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