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प्रेक्षा-जागरूकता की प्रक्रिया कार्यों में की जा सकती है। सजन कठिन और विध्वंस सरल होता है। द्वेषात्मक प्रवृत्ति विध्वंसात्मक कार्यों की ओर त्वरित गतिशील होती है। विध्वंस से विनाश होता है। वह अन्तर भावों को भी आंदोलित करता है। भावना से प्रभावित होते हुए मन और शरीर उससे बच नहीं पाते। कोई भी रोग शरीर पर उतरता है तो वह केवल शरीर तक ही सीमित नहीं रह पाता। शरीर के साथ मन और भावना को भी प्रभावित करता है। भविष्य में रोगी को डॉक्टर फीस देगा
वर्तमान में बीमार होते ही डॉक्टर को बुलाकर दवा लेते हैं और फीस देने की प्रवृत्ति है। आने वाले युग में ऐसा नहीं होगा। किसी व्यक्ति पर पहले तो बीमारी उतर नहीं पायेगी क्योंकि शरीर-विज्ञान इतना विकसित हो जाएगा कि बीमारी शरीर पर उतर नही पायेगी। शरीर विज्ञानी ६ महीने पहले ही डॉक्टरी जांच से पता लगा लेगा कि शरीर पर यह बीमारी उतरने वाली है। उसका निराकरण अभिव्यक्ति से पहले ही अपनी औषधि से करने में वह समर्थ होगा। यदि किसी कारणवश उसे वह ठीक नहीं कर पायेगा तो उसे उस व्यक्ति के स्वास्थ्य तक औषधि आदि की व्यवस्था अपनी ओर से करनी होगी। साथ ही वह जब तक अस्वस्थ रहेगा, तब तक डॉक्टर को उसकी स्वास्थ्य सुरक्षा फीस देनी होगी। आकस्मिक दुर्घटना आदि की स्थिति अलग है। आयुर्वेद और स्वास्थ्य
आयुर्वेद ने रोग की चर्चा करते हुए बताया कि वात, पित्त और कफ त्रिदोष की विषमता ही रोग है। वात, पित्त और कफ की समानता स्वास्थ्य है। वात, पित्त और कफ को विषम बनाने वाले निमित्तों के संयोग से ही व्याधि उत्पन्न होती है। निमित्त दो व्यक्तियों को एक जैसा मिलता है। एक को कफ की विकृति होकर श्वास की पीड़ा होने लगती है। दूसरे व्यक्ति को श्वास की पीड़ा नहीं होती। निमित्त के साथ दोनों के फेफड़ों में अन्तर होने से श्वास की पीड़ा एक को होती है दूसरे को सर्दी लगकर ही रह जाती है।
रोग का तीसरा कारण अन्तरंग है। जिसे सूक्ष्म संस्कार का उदय (प्रकटीकरण) कह सकते हैं। सूक्ष्म संस्कार का उदय होने से निमित्त के बिना भी शरीर में रोग उत्पन्न होने लगता है। वह अन्तरंग सूक्ष्म संस्कार (कर्म) का कारण है।
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