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________________ ६४ प्रज्ञा की परिक्रमा प्रेक्षा साधना अप्रभावित होने की प्रक्रिया है। उसके प्रयोगों से निमित्त के कारण से होने वाली बीमारी भी उपशान्त होने लगती है। क्योंकि साधक उससे प्रभावित नहीं होता है। वात, पित्त आदि भी इतने जल्दी कुपित नहीं हो पाते । अन्तरंग सूक्ष्म कारण भी प्रेक्षा से निर्जरित होने लगते हैं। प्रेक्षा प्रयोक्ता के भी शरीर होता है। बीमारी हर किसी को हो सकती है, किन्तु प्रेक्षक विषम परिस्थिति में समता की दृष्टि का विकास कर लेता है। प्रेक्षा से दृष्टिकोण परिवर्तन प्रेक्षा साधक के दृष्टिकोण में परिवर्तन करती है। दृष्टिकोण ही व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करता है। दृष्टि की अयथार्थता ही जीवन में क्लेश, विषमता और अशान्ति उत्पन्न करती है। दृष्टिकोण यथार्थ होने पर उपचार भी शीघ्र हो जाता है। प्रेक्षा अध्यात्म चिकित्सा है। भाव चिकित्सा है। प्राण चिकित्सा है। कायोत्सर्ग चिकित्सा है। योग चिकित्सा है। प्रेक्षा के द्वारा चिकित्सा करने का कोई उद्देश्य नहीं है । प्रेक्षा शुद्ध अध्यात्म प्रक्रिया है। उससे अन्तरंग स्थिति को सम करने का उद्देश्य है। प्रेक्षा-ध्यान का उद्देश्य है-चित्त की निर्मलता, कषाय की उपशान्ति, वीतरागता । अन्तरंग स्थिति सम होने से बाह्य स्थिति भी स्वतः सम होने लगती है और रुग्णता भी दूर होने लगती है। बीमारी से व्यक्ति पीड़ित है उसे वह चाहता नहीं है। उसको दूर करने के लिए नाना औषध और चिकित्सा करवाता है। प्रेक्षा साधना मानसिक और भावात्मक बीमारियों को विशेष रूप से प्रभावित करती है। शरीर भी स्वस्थ बनता है, ऐसे कोई भी बीमारी केवल शारीरिक, केवल मानसिक, केवल भावात्मक नहीं हो सकती। शरीर, मन और भाव एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। परस्पर प्रभावित होते हैं। किसी भी चिकित्सा में केवल शरीर, मन और भावों के शोधन से कार्य पूरा नहीं होता। चिकित्सा क्षेत्र में आज नया शब्द प्रयोग में आने लगा है (साइकोसोमेटिक) मनोकायिक भी अपने आप में पूर्ण नहीं है। मन और काय से भी आगे भाव एवं सूक्ष्म संस्कार जीवन को प्रभावित करते हैं। प्रेक्षा-ध्यान के प्रयोग शरीर को स्वस्थ बनाते हैं। मन को स्वस्थ बनाते हैं। भावनाओं का परिष्कार करते हैं। चैतन्य को अनावृत करते हैं। प्रेक्षा से शरीर का संयम शरीर साधना के अनुरूप बने । ध्यान अथवा स्वाध्याय की समान आराधना हो सके। इस उद्देश्य को लेकर आसन, प्राणायाम का अभ्यास निहित माना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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